210/2023
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●शब्दकार©
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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कलियुग की कैसी महिमा रे।
बिखर रहे परिवार हमारे।।
एकाकीपन की घन छाया।
फैली जग में काली माया।।
नई वधूटी घर जब आई।
आँगन में दीवार लगाई।।
अलग रहें अब बुढ़िया - बूढ़े।
कौन उठाए टूटे मूढ़े??
अलग जलाती दुलहिन चूल्हा।
रहे अकेली सँग में दूल्हा।।
अलग बसा परिवार अनोखा।
देता जननी -पितु को धोखा।।
पढ़े-लिखे अति लोग- लुगाई।
वृद्धाश्रम में करें विदाई।।
पा एकांत देह - सुख पाएँ।
मात -पिता को उधर पठाएँ।।
नैतिकता का साथ नहीं है।
प्रेम सहज सौहार्द्र कहीं है??
निकले पंख उड़े खग दोनों।
पड़े पिता जननी को रोनों।।
अब वसुधा परिवार नहीं है।
स्वार्थ भोग की भित्ति यहीं है।।
नारी ने परिवार उजाड़े।
जनक-जननि के गात उघाड़े।।
●शुभमस्तु !
15.05.2023◆4.00प.मा.
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