गुरुवार, 24 सितंबर 2020

प्रीत के गीत [ गीत ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

💃 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

प्रीत  के  तो  गीत  ही बस रह गए।

भेद  सारे  कर्म  ही  सब   कह गए।।


राम   रसना   से  रिसा  जाता मधुर।

पर  हृदय  है  कटु  निबौली- सा प्रचुर।।

जुल्म ज़ालिम जगत के हम सह गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही बस रह गए।।


प्रेम   नाटक  का  सजाता  मंच  है।

आवरण  में  निपट  प्रबल प्रपंच  है।।

महल   मानव  के  सजे ही ढह   गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह  गए।।


नेह  के    नाते   अभागे  हैं यहाँ।

स्वार्थ     के  ही  रंग  में   रँगता  जहाँ।।

कालिमा    भर -भर  पनारे  बह    गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह   गए।।


दान     करता    आदमी  अख़बार     में।

मुस्कराता    फोटुओं    के  ज्वार     में।।

निस्वार्थ  करते  काम  वे सब रह   गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह   गए।।


सौ    मुखौटे    चेहरों  पर   आ   गए।

असलियत  के  -भेद  सारे  खा   गए।।

सजलता  के 'शुभम ' सागर दह   गए।

प्रीत   के  तो   गीत   ही बस रह  गए।।


💐 शुभमस्तु !


23.09.2020 ◆1.45अपराह्न

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...