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✍ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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गहरे सागर पैठकर, मिलते मुक्ताहार ।
जो तट बैठा ऐंठकर , रोता अश्रु हजार।।
स्वांत बूँद सीपी गिरे,अधर न हों दो बंद,
मोती बनता सीप में,नखत स्वांत उजियार।
रखे हाथ पर हाथ को,बैठा क्यों नर मूढ़,
बहा पसीना देह का,छाए विरुद -बहार ।
चलता रह निज राह पर, मंजिल आए पास,
थक जाए विश्राम कर,मगर न माने हार।
नहीं मलाई रसभरी,पथरीली हर राह,
जो जूझे जीवित रहे,वरना जीवन खार।
अपने पैरों जो खड़ा,होती उसकी जीत,
गैरों का मुँह जोहता, जाता नदी न पार।
पर्वत पर चींटी चढ़ी,ले नर उससे सीख,
गिरना-उठना जिंदगी,'शुभम' तभी उद्धार।
💐 शुभमस्तु !
06.09.2020 ◆11.45पूर्वाह्।
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