◆◆○○◆◆○○◆◆○○◆◆○○◆◆○
✍️ शब्दकार©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆○○◆◆○○◆◆○○◆◆○○◆◆○
जब से मैं भी शहर हो गया।
मेरे भीतर जहर बो गया।।
हवा प्रदूषित हुई गाँव की।
शांति मर गई सभी ठाँव की।।
नौ - नौ आँसू नयन रो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
चौपालें दुकान हो गईं।
नौनिहाल - मुस्कान खो गई।।
नारी का सम्मान सो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
कृषक नहीं अब खेती करता।
सजा दुकानें निज घर भरता।।
कृषि उत्पादन कहीं खो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।
पानी हुआ भूमि का खारी।
फैल रहीं कितनी बीमारी।।
स्वस्थ देह अब स्वप्न हो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
काटे बाग गई अमराई।
सरिता - जल की हुई विदाई।।
फूलों का संसार सो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
गेहूँ , चना , मटर की खेती।
नहीं रही अब फसल अगेती।।
प्रेम और व्यवहार लो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
काला धुआँ चिमनियाँ छोड़ें।
आँखें ढँकें नाक - भौं मोड़ें।
स्वाभाविक संसार तो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
हरे साग का सपना आता।
अंडा माँस आदमी खाता।।
मानवता का मरण हो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
है विकास विनाश का बेटा।
बलिदानों की भू पर लेटा।।
आँसू से मुख विकल धो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
आओ चलो गाँव अपनाएँ।
संग प्रकृति आनन्द मनाएँ।।
'शुभम' गाँव का सुमन खो गया।
जब से मैं भी शहर हो गया।।
💐 शुभमस्तु !
29.09.2020 ◆10.30 पूर्वाह्न।
🏕️🏕️🦚🏕️🏕️🦚🏕️🏕️🦚
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें