357/2023
©लेखक
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सत्य बात तो यह है कि आदर्श आचार संहिता जैसी कोई बात नहीं होती।यदि यह जीवन आदर्शों की पटरी पर ही चलने लगे,तो दौड़ना तो क्या रेंगना भी असम्भव हो जाए।'आदर्श' जैसा शब्द किताबों में बहुतसुशोभित होता है।सदैव से होता भी रहा है।किंतु वास्तविकता यही है कि वह किताबों में लिखा ही रह गया है। और आदर्शों की उस किताब को आज तक किसी ने खोलकर भी नहीं देखा। उसके पन्नों की धूल तक कभी नहीं झाड़ी गई।यह ठीक वैसे ही है ,जैसे चुनावों में आचार संहिताकी किताब सबको पढ़ने समझने और करने के लिए दी जाती है,किंतु कोई भी पीठासीन अधिकारी उसे खोलकर भी नहीं देखता।यदि वह उसे पढ़ने की कोशिश भी करे तोएक वोट भी नहीं डलवा सकता।उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम में उसे यही सिखाया जाता है,कि 'जैसी बहे बयार तबहिं रुख तैसौ कीजै।' अर्थात स्वमति से काम लेते हुए ही कार्य का संपादन करें न कि किताब के पन्ने पलटते रहें।
इससे यही स्पष्ट होता है कि व्यवहारिक ज्ञान ही काम आता है।किताब तो इसलिए लिखी जाती है कि 'रसीद लिख दी ताकि वक्त पर काम आए।' इस प्रकार 'आदर्श' और 'व्यवहार' :दो अलग-अलग बातें हैं। व्यवहार आदर्शों से कभी मेल नहीं खाते। हर समय ,स्थान (भूगोल) और परिस्थिति की व्यवहारिकता अलग -अलग होती है।लकीर के फ़क़ीर बनकर चलना न तो उचित है और न सम्भव ही।घासपात भी जलवायु के अनुकूल उगती है।गर्म देशों और प्रदेशों के पेड़ पौधे ठंडे स्थानों से भिन्न ही हुआ करते हैं।
हमारे 'आदर्श' हमें दर्श अर्थात देखने और दिखाने के हाथी दाँत हैं।जबकि 'व्यवहार' से करणीय का समाहार होता है।जरूरत पड़ने पर अपने और दूसरे के बचाव के लिए अपनी गाड़ी सड़क से फुटपाथ पर भी उतारनी पड़ जाती है।जबकि सड़क पर चलने का आदर्श यह नहीं कहता कि सड़क छोड़ पगडंडी चलें।व्यवहार ही हमें गाड़ी को आत्म रक्षार्थ और परात्म रक्षार्थ लीक छोड़ अलीक चलने के लिए तत्काल ज्ञान देता है। हमारा समग्र मानव जीवन ही ऐसा है कि वहाँ व्यवहार ही सर्वोपरि हो जाता है।
प्रकृति के समस्त जीवधारी पशु,पक्षी,पेड़,पौधे,लताएँ,जलचर,थलचर किसी आदर्श की किताब से जीवन नहीं जीते।उन्हें भी अपने व्यवहार ज्ञान से यथा परिस्थिति चलना पड़ता है।प्रकृति ने सबको अलग प्रकार की कार्य शैली की क्षमता प्रदान की है। बुनकर पक्षी बया कितना सुंदर और कारीगरी से स्व नीड़ का निर्माण करता है तो कोयल को घोंसला बनाना ही नहीं पड़ता और उसके अंडे बच्चे कौवे के घोंसले में पलते - बढ़ते हैं। शेर , चीता, खरगोश, हिरन, सियार,चूहा, बिल्ली, कुत्ता, गाय,बैल,मुर्गा,गौरैया,कबूतर, मोर आदि सबकी जीवनचर्या पृथक -पृथक है।वे न स्कूल कालेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ते या प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और न मनु स्मृति,गीता, वेद,पुराण, कुरान,बाइबिल ही उनके आदर्श हैं।वहाँ मात्र व्यवहार ही व्यवहार है। वही जीवन का सदाचार है।वही जीवनाधार है।पढ़े -लिखे और बिना पढ़े -लिखे जन किताबी जीवन नहीं जीते।आदर्शों की किताबें तो अलमारियों की शोभा मात्र हैं।
यहाँ प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि जब आदर्शों की मोटी-मोटी पोथियों की जरूरत ही नहीं तो ये लिखी ही क्यों गईं।अचार को दाल सब्जी की तरह नहीं खाया जाता। इसी प्रकार हमारे 'आचारों का अचार' तभी काम आता है ,जब या तो घर में दाल-सब्जी समाप्त हो गई हो अथवा हमें 'आचारों के अचार' का स्वाद भर लेना हो। यदि रामायण पढ़कर राम बन जाते ,तो त्रेता से कलयुग तक करोड़ों रामों का निर्माण हो जाता। यदि सीता के चरित्र से कोई नारी सीता बनती तो घर -घर की कहानी कुछ और ही होती।रावण,सूपनखा,धृतराष्ट्र, दुर्योधन,कंस आदि चरित्रों के लिए कोई रामायण महाभारत नहीं लिखे पढ़े जाते। ये चरित्र तो कुकुरमुत्ते की तरह खुद- ब -खुद माताओं की कोख फाड़कर निकल ही आते हैं।परंतु राम,भरत,लक्ष्मण,शत्रुघ्न, सीता ,उर्मिला,कृष्ण जैसे आदर्श प्रत्यावर्तन नहीं करते।यही आदर्श और व्यवहार का अंतर है। आदर्श एक मंत्र है तो व्यवहार एक आम तंत्र है।जिसके लिए जीव मात्र क्या मानव मात्र स्वतंत्र है।
शुभमस्तु !
17.08.2024● 1.15प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें