372/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चरित्रार्थी कहाँ ?
जब निकल ही गई है
अर्थी चरित्र की!
अवसर नहीं जिसे मिला
चरित्रवान बस वही।
किसी की मूँछ के नीचे
किसी की पूँछ के तले
आवृत है चरित्र!
हटी जब मूँछ
या उठी जब पूँछ
यथार्थ कुछ और ही था।
नेता या अधिकारी
नर हो या नारी
चरित्र की लाचारी,
दूध का धुला
कोई तो नहीं!
रेशम या खद्दर
आवरण बने सुंदर,
सम्मान बस कपड़े का
छिपा हुआ नीचे
कोई हवस का हैवान !
आज का इंसान।
खुली नहीं पोल
दुनिया है गोल
हीनता अनतोल,
अर्थी उठाए फिरते हैं
अपनी ही
अपने कंधों पर।
पर छिद्रों को चौड़ाना
आदमी का काम है,
अपनी मूँछ उठाना
इसी में नाम है!
जहाँ भी जाए 'शुभम्'
अँधेरा ही अँधेरा है,
निकट नहीं सवेरा है।
29.08.2024●8.30प०मा०
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