343/2024
©लेखक
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' '
शब्द' की महिमा के समक्ष मैं निःशब्द हो जाता हूँ।प्रकृति स्वरूप परमात्मा ने 'शब्द' जैसी अद्भुत शक्ति का सृजन कर संसार को दिया है।कोई भी सार्थक ध्वनि एक विशेष अर्थ का बोध कराती है।उस शब्द के अर्थ की ग्राह्यता की क्षमता हर जीव की अलग - अलग होती है।कोयल की कुहू-कुहू,कौवे की काँव -काँव, मोर की मेहो-मेहो ,मुर्गे की कुकड़ -कूँ, गौरैया की चूँ -चूँ ,मेढक की टर्र-टर्र, झींगुर की झर्र-झर्र,कुत्ते की भों-भों,बंदर की खों -खों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़,सियार की हुआ -हुआ आदि अनेकशः हजारों लाखों शब्दों का अपना विशेष महत्त्व है।जिस जंतु का जो शब्द है, उसका सजातीय भी उसका अर्थ भलीभाँति जानता समझता है।
अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य को भी शब्द की विशेष और अद्भुत शक्ति अपने सहज रूप में प्राप्त है। यह अलग बात है कि उसकी भाषा हिंदी,उर्दू,गुजराती, बंगला, तमिल,तेलुगु, कन्नड़,मलयालम, उड़िया,अंग्रेज़ी, चीनी,फ्रेंच,जापानी, रूसी आदि कुछ भी हो सकती है। शब्द एक ध्वनि विशेष है,जिसकी ग्राह्यता की अपनी सीमा है।यों तो बादलों की गर्जन, आकाशीय तड़ित की तड़कन,घण्टे की घन-घन,टन- टन कुछ संकेतक शब्द ही तो हैं।
सामान्यतः प्रत्येक मनुष्य अपनी -अपनी भाषा की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही करता है,जो उस जैसे अन्य मनुष्यों के लिए सहज रूप में बोधगम्य होती है।इसके साथ ही सहित्यकार अपने विशेष शब्द -शृंगार और शृंखला से उसे गद्य या पद्य का एक नया रूप देकर उसे आकर्षक और विशिष्ट बना देता है। यह उस साहित्यकार अथवा कवि विशेष का विशेष योगदान है,जो मानव मात्र के लिए उपयोगी है।उन्ही शब्दों को एक विशेष शैली सूत्र में पिरोकर वह एक ऐसी माला का निर्माण करता है,कि पाठक या श्रोता के मुख से सहज ही वाह!वाह!! निकल पड़ता है।यही उस शब्द - साहित्य का चमत्कार है।
यों तो रोना भी एक शब्द है। गाना भी शब्द है।किंतु रोने,गाने,हँसने, खिलखिलाने सबका शब्दकोष भी अलग ही है।जब शब्द लय, गति, प्रवाह, रस,अलंकार ,शब्दशक्ति आदि से समन्वित होकर प्रकट होता है,तब वह सहित्य का रूप ग्रहण कर जन हितकारी बन जाता है। यही उस शब्द- साहित्य की सार्थकता है।यह अलग बात है कि वह लिखित रूप में किसी कृति का रूप धारण करता है अथवा मौखिक वाङ्गमय रूप में ही अस्तित्व ग्रहण करता है।प्रचार - प्रसार और बहु जन हिताय बनाने के लिए उसे ग्रंथकार बनाना भी आवश्यक हो जाता है।शब्द के इसी चमत्कारिक रूप से ही साहित्य की विविध विधाओं :कहानी, उपन्यास,नाटक, एकांकी,व्यंग्य, निबंध, लेख,निबंध, आलेख,जीवनी, रेखाचित्र,संस्मरण, मुक्तक काव्य,(दोहा,चौपाई,सोरठा, कुंडलिया,सवैया,कवित्त आदि) तथा प्रबंध काव्य (महाकाव्य, खण्डकाव्य)का प्रादुर्भाव हुआ है।जो आज भी साहित्य साधकों की शब्द साधना का संस्कार बन कर उभरा है।
शब्द वह सुमन है;जिसे फेंक कर मारें तो पत्थर है और करीने से सजा दें तो पूजा का फूल बन जाता है।माला में गूँथ देने पर वही शब्द साहित्य बनकर जन -जन के गले में सुशोभित होता है।प्यार में भी शब्द है और फटकार में भी शब्द है। कहीं वह फूल है तो अन्यत्र शूल भी है।शब्द की महिमा का जितना भी गुणगान किया जाए,कम ही है।सम्पूर्ण संसार शब्दमय है।चाहे वह नदी की हिलोर हो,या सागर की रोर हो, पावस में नाचता मोर हो,या स्कूली बच्चों का शोर हो,सर्वत्र शब्द ही शब्द है।वह विरहिणी के वियोग में है तो गर्भिणी के आसन्न प्रसवयोग में भी है।कहीं वह वीणा की झंकार है,तो कहीं धनुष की भीषण टंकार है।कभी वह युगल प्रेमियों का प्यार है,तो कहीं वात्सल्य मय पिता की पुत्र को मीठी ललकार है।शब्द की समस्त सृष्टि में गुंजार है।मानव मात्र पर शब्द का अधिकार है।शब्द की सरकार है।बिना शब्द के सब बेकार है।यद्यपि कोई शब्द ईश्वरवत निराकार है। फिर भी वह इस कोमल हृदय के आर है तो पार भी है।यही शब्दोत्सव शृंगार है।
शुभमस्तु !
10.08.2024●10.30आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें