शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

जवासा [अतुकांतिका]

 356/2024

                      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


है नया 

कुछ भी नहीं,

सब कुछ वही,

बस शोध 

करना शेष

बने  शोधार्थी कवि

और लेखक।


शैलियाँ, भाषा, विधाएँ

पृथक सबकी

छंद, लय, तुक,

रस,उक्ति की 

कहन के हैं

 रूप अद्भुत।


चल रहा है कारवाँ

साहित्य का यों,

तान ले तू मूँछ,

बढ़ने भी लगे

तव पूँछ लंबी

लोटती भू पर

उतरती शून्य में।


गर्व है किस बात का

खोजी नहीं तू,

ऐंठ रस्सी में

 तभी तक

जल न जाए!

व्यर्थ ही तू

बिखर जाए।


दम्भ क्या पाले,

सभी कुछ है

यहाँ ब्रह्मांड में ,

सोचो विचारो

हे 'शुभम्'

यह गहनता से,

दीर्घ पर्वत पर

उगे ज्यों तृण जवासे।



शुभमस्तु!


16.08.2024● 3.45आ०मा० 

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