बुधवार, 14 अगस्त 2024

दुश्मनों का संसार [व्यंग्य ]

 354/2024 

 

©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 हम हैं, तो हमारे दुश्मन हैं।आप हैं,तो आपके भी दुश्मन हैं।इस संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं,बल्कि यों कहिए कि ऐसा कोई प्राणी नहीं ;जिसका शत्रु इस भूमंडल पर पैदा न हुआ हो। यह अलग बात है कि दुश्मन आपसे पहले पैदा हो गया हो ,आपका वरिष्ठ हो।और यह भी हो सकता है कि वह आपके बाद में पैदा हुआ हो,आपका कनिष्ठ हो। हो तो यह भी सकता है कि अभी उसका जन्म ही न हुआ हो। भविष्य में होने वाला हो।बस इतनी सी बात गाँठ में बाँध लीजिए कि इस भूतल पर कोई भी व्यक्ति क्या कोई भी प्राणी शत्रु विहीन नहीं है।

 यह कहा नहीं जा सकता कि यहाँ कौन कब किसका दुश्मन बन जायेगा।बस समय की प्रतीक्षा कीजिए कि आपके दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य से आपका दुश्मन कब प्रकट होता है।दुश्मन का होना हम सबका एक ओर दुर्भाग्य है तो दूसरी ओर वह हमारा सौभाग्य भी हो सकता है।इसलिए एक सूत्र यह मान लीजिए कि दुश्मन और दुश्मनी जीवन के अनिवार्य अंग हैं।कभी किसी को अपना स्थाई मित्र मान लेने की भयंकर भूल मत कर दीजिए। साझे का घड़ा हमेशा चौराहे पर फूटता हुआ देखा जाता है।न मानो तो साझा करके देख लीजिए। यहाँ कोई भी अपना नहीं है। आज अपना है ,तो कल नहीं भी हो सकता है।

  दुश्मन और दुश्मनी को मैंने अपने ऊपर के वक्तव्य में अपना सौभाग्य माना है। आप पूछेंगे कि ऐसा क्यों ?कि दुश्मन होना हमारा सौभाग्य बन जाए। हमारा दुश्मन हमें जीना सिखाता है,सदैव जागरूक रहकर जीना सिखाता है।अन्यथा ग़फ़लत में पड़े हुए हम धोखे खा जाते हैं।इस बात को महात्मा कबीर सैकड़ों वर्ष पहले कुछ इस प्रकार कह चुके हैं:-

 'निंदक नियरे राखिए,आँगन कुटी छवाय।

 बिन पानी साबुन बिना,निर्मल करे सुभाय।।' 


 कुछ लोगों का यह बहुत बड़ा सौभाग्य ही होता है कि उनके एक नहीं अनेक दुश्मन होते हैं।वे आगे पीछे ऊपर नीचे दुश्मनों से ही घिरे रहते हैं।यह तो सोचने वाले की सोच की बात है कि वह अपने दुश्मन को सकारात्मक रूप से ग्रहण करता है अथवा नकारात्मक रूप से।जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं,वैसे ही दुश्मन को ग्रहण करने के भी दोनों ही पहलू होते हैं। हमारी सकारात्मक सोच से दुश्मन भी मोम हो जाता है और नकारात्मक सोच तो ज्वलनशील होती ही है।भगवान राम के जीवन में एक समय ऐसा आया कि दशों दिशाएँ शत्रुओं से भरी हुई थीं।उनके भी शत्रु पैदा हो ही गए।किन्तु उनके जीवन संघर्ष ने मानव मात्र के लिए जो सकारा त्मक संदेश दिया ,वह हम सबके लिए प्रेरक बन गया।यही हाल भगवान कृष्ण के साथ हुआ।उनके शत्रु तो उनके अवतार से पहले ही उनका संहार करने के लिए तैनात हो गए और उन्हें अपने शत्रुओं से आजीवन संघर्ष करना पड़ा।

 शत्रु सजातीय भी हो सकता है।विजातीय भी हो सकता है।विधर्मी भी हो सकता है।आदमी एक ऐसा जीव है कि उसे शत्रु बनाने में आनंद आता है।कुछ ऐसे भी हैं कि अनायास ही आपको शत्रु मानने लगते हैं।कारण के बिना कार्य भले न होता हो,किंतु अकारण शत्रोद्भव अवश्य हो सकता है।पड़ौसी पड़ौसी का शत्रु बन जाता है।यह जानते और मानते हुए कि कोई किसी का नहीं खा रहा है ,फिर भी आदमी अनायास ही शत्रु -सृजन कर ही लेता है।इस असार संसार में शत्रु, मित्र और तटस्थ तीनों ही कोटियाँ सुलभ हैं।कभी कोई मित्र ही नहीं ,निकट सम्बन्धी भी आपका शत्रु बनकर उभरता है। कहीं स्वार्थ शत्रुता का कारण बनता है तो कहीं ईर्ष्या शत्रुओं को पैदा कर देती है।शत्रु तो बस ऐसे पैदा होता है ,जैसे बरसात में गिजाई,केंचुए और अन्य कीड़े मकोड़े पैदा हो जाते हैं।आदमी के अच्छे काम,उसकी प्रगति और सम्पन्नता भी शत्रु जन्म के लिए उर्वर भूमि का काम करते हैं। 

  सूक्ष्म सुझाव यही है कि शत्रु पैदा होते हैं तो होने दीजिए।बस अपने मार्ग पर यों चलते और आगे बढ़ते रहिए कि हाथी चलते रहें और कुत्ते भौंकते रहें।यदि हाथी के सामने ही कुत्ता आ जाए तो दो लात मारिए और शत्रु को ललकारिये और अपना पथ प्रशस्त कीजिए।यह संसार ही शत्रु सम्पन्न है तो आप और हम कर ही क्या सकते हैं।बस संघर्ष करना है और चलते चले जाना है।शत्रु को निश्चित ही मुँह की खानी पड़ेगी।कहीं जुबान तो कहीं तलवार भी चलानी पड़ेगी।हमें जग भौजाई नहीं बनना है क्योंकि कमजोर की लुगाई सबकी भौजाई जो होती है ! 

 शुभमस्तु ! 

 14.08.2024●4.00प०मा० 

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