361/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जहाँ - जहाँ
दृग - दृष्टि दौड़ती
क्षितिज - छोर छाई हरियाली।
सघन सजे तरु
पल्लव दल से
फसलें खड़ीं खेत में झूमें।
ऊँचे विटप
खड़े मेड़ों पर
अंबर की चोटी को चूमें।।
बहती हवा
विरल शीतल - सी
नाच रही हर डाली -डाली।
विटप -छाँव में
पड़ी खाट पर
लेट - बैठ निगरानी करते।
आवारा पशु
फसल न खाएँ
कृषक थकान देह की हरते।।
वहीं पास में
बरहा बहता
चौड़ी भरी सलिल से नाली।
अहा प्रकृत
जीवन भी क्या है
क्यों न सभी जन इनको चाहें!
शुद्ध हवा पानी
असीम हैं
खोल खड़ी है प्रकृति बाँहें।।
'शुभम्' एक झपकी
आ ले ले
पड़ी खाट पर दुपहर वाली।
शुभमस्तु !
20.08.2024● 5.00आ०म०
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