सोमवार, 26 अगस्त 2024

समझ न पाया [सजल]

 365/2024

           

समांत      : अन

पदांत       : अपदांत

मात्राभार   :16

मात्रा पतन : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समझ  न   पाया   मानव   जीवन।

जीर्ण  जरा  है  रहा  न    बचपन।।


यौवन   काम  -  दाम    में    बीते।

दिखा  रहा  कितने  ही   ठनगन।।


शैशव     में    अबोधता      छाई।

हुआ  कुमार     गूँजती   छनछन।।


गए     अठारह     खेलकूद     में।

आँखें  बंद   छा    गया    छादन।।


साथ  मिला  नारी   का   नर  को।

कभी  हर्ष  कब   होती  अनबन।।


संतति  - मोह न  गया एक   पल।

सूख हुआ   है  दुर्बल   ये     तन।।


'शुभम्'  आजकल   करते   बीता।

गया  साथ  में एक न   लघु  कन।।


शुभमस्तु !

26.08.2024●5.00आ०मा०

                  ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...