333/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
छतरी ताने
सिर पर अपने
पथ पर गमन करें राही।
ऋतु पावस की
नभ में छाए
काले - भूरे मेघ घने।
पता नहीं
कब बरसे पानी
लिए हाथ में छत्र तने।।
धूप तेज
अंबर से आई
देह झुलसती - सी दाही।
पथ पर
हरे- हरे तरु कितने
फैलाते हैं शीतल छाँव।
राही को
सुख शांति बाँटते
नहीं जलें धरती पर पाँव।।
अपने -अपने
काज साधने
बनते हैं जन अवगाही।
घास हरी है
सड़क किनारे
सड़क लगे धरती की माँग।
पेड़ों पर
यद्यपि हैं चिड़ियाँ
नहीं लगाते मुर्गे बाँग।।
'शुभम्' आदमी
प्राणी अद्भुत
करता है निज मनचाही।
शुभमस्तु !
06.08.2024●5.45आ०मा०
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