349/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सदा-सदा ये आखर नन्हे
सीख सिखाते हैं।
कोई खुला बंद है कोई
सबका अलग स्वभाव,
'क' से कलम
खरहा है 'ख' से
करता नहीं दुराव।
मिल कर रहें एकता धारें
यही सुझाते हैं।
बारहखड़ी खड़ी
करने को
भाषा को सहयोग,
स्वर का साथ
सदा ही लेना
भाषा रहे निरोग।
जाति नहीं
मजहब वर्णों का
हँस मुस्काते हैं।
ऐसा नहीं
टाँग से वंचित
आखर निरे अपंग,
किंतु टाँग मारें
न कभी वे
देते सबका संग।
'शुभम् 'मूक हैं
बावन आखर
कुछ कह जाते हैं।
शुभमस्तु !
12.08.2024●11.00आ०मा०
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