शनिवार, 31 अगस्त 2024

धारा [ कुंडलिया ]

 374/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

धारा  नव निर्माण   कर, रहते  धीर सुजान।

मुर्दावत    बहते   नहीं,  सरिता  में प्रज्ञान।।

सरिता  में   प्रज्ञान, सोच  में  मौलिक  होते।

करते  पथ-प्रस्थान, लगाते  मन  से गोते।।

'शुभम्' धार  विपरीत,चलाते बन ध्रुव तारा।

शुभता  जिनकी  नीति,बनाते वे नव धारा।।


                         -2-

धारा  गंगा   की  बहे, कलकल छलछल  नित्य।

मुदित  तृप्त  होती  धरा, चमके  नभ आदित्य।।

चमके  नभ  आदित्य, विटप जलजीव  सिहाएँ।

अमराई   वन    बाग,    खेत    ऊसर  उमगाएँ।।

'शुभम्'  मनुज  थल जीव,गगनचर उमड़े   प्यारा।

सुरसरिता   की   धार,  पावनी अविरल   धारा।।


                        -3-

धारा    पावस  मेघ  की,यदि  बरसे अविराम।    

बूँद - बूँद  गिरतीं   नहीं, करती   छोटे  काम।।

करती   छोटे   काम, सहन  कब  होता  पानी।

चले    सुनामी   तीव्र,  मरे   सबकी ही  नानी।।

'शुभम्'  प्रकृति  का  खेल,नहीं है कोई  कारा।

झीनी    जलकल   रेल,  बने वर्षा की   धारा।।


                         -4-

धारा  वचन  प्रवाह   की,माँ की कृपा   अपार।

कविता की  रसधार  है,भावों का मधु   प्यार।।

भावों   का मधु  प्यार,बने कवि की सुरसरिता।

देती   है    सुखसार,  दुःख  ओघों की   हरिता।।

'शुभम्' सृजन  साहित्य,चमकता बन उजियारा।

गद्य - पद्य    आदित्य,  जगत     में बहती धारा।।


                        -5-

धारानगरी  भोज  की, जन-जन  कवि    विद्वान।

आनन  से कविता  बहे, ऋषि मजदूर  किसान।।

ऋषि  मजदूर    किसान,छंदमय  बोलें   वाणी।

भारत   नगर  महान,   बनी  कविता कल्याणी।।

'शुभम्'  यथा   हो  राज,तथा हो जन उजियारा।

शोषक  का हो  नाश,  नहीं   अब नगरी   धारा।।


शुभमस्तु !

31.08.2024●4.45प०मा०

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