मंगलवार, 20 अगस्त 2024

र' से राजनीति [ व्यंग्य ]

 362/2024


 

 ©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 संसार की किसी भी वस्तु,व्यक्ति, जीव,भाव आदि के नाम का प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है।अब मुझे ही ले लीजिए।मेरे नाम का पहला अक्षर है 'र' ; जो अपने आकार और रूप ढंग से पहले से ही टेढ़ा है।इसी 'र' से शब्द बना 'राज',जो श्लेषात्मक और अत्यंत रहस्यपूर्ण है। जिस शब्द का पहला अक्षर और शब्द ही वक्र हों,उससे ऋजुता की आशा कैसे की जा सकती है ? जब 'राज' और 'राजनीति' की अतल गहराई में उतरते हैं,तो जो प्राप्त होता है ;वह आश्चर्यान्वित करने वाला है।

  जहाँ ऋजुता न हो, राजनीति वहीं पाई जा सकती है।राजनीति में योग्यता की न तो आवश्यकता है और न ही उपादेयता।दुनिया के समस्त क्षेत्रों में असफलता की उपाधि ही इसका सर्वोत्तम मानक है।राजनीति सीखने का न कोई स्कूल कालेज है और न ही विश्वविद्यालय। यह तो खुद -ब-खुद उगने वाला वह खजूर है,जो रेगिस्तान में अपने सदाबहारी रूप में फलता-फूलता है। जिस घर में राजनेता का एक भी रूख उग आए, उसकी तो बारह मास पौ बारह ही समझिए।वह घर झोंपड़ी से महलों में तब्दील हो जाता है।मानो सुदामा के घर में रुक्मिणी पति श्रीकृष्ण के कदम पड़ गए हों। वहाँ की मिट्टी भी सोना बन जाती है।

  'राज' के साथ किसी प्रकार की 'नीति' का दूर -दूर तक कोई निकट सम्बंध नहीं है।'राज' तो भारतीय मर्दानी धोती के ऊपर वह 'टाई' है, जिसका अर्थ और काम ;सब कुछ बाँधना ही है।वह व्यक्ति,समाज, देश,धन,दौलत,धर्म,शिक्षा,वाणिज्य, व्यवसाय,धरती,समुद्र,पर्वत, आकाश आदि सबको बाँध कर चलती है।सबको परतंत्र बनाकर अपनी टाँगों तले दबाकर रहना जानती है। मुझ राजीनीति की यह मान्यता उसकी रग - रग में समाई है कि वह सर्वोपरि है। वह सर्वश्रेष्ठ है। वह सबकी इष्ट है। इसीलिए तो एक अँगूठाटेक राजनेता आई, ए. एस. और आई.पी.एस.पर राज करता है। 

  राजनीति का तंत्र ही ऐसा निराला है, जहाँ केवल वही गोरी है शेष सब काला है।ज्यों-ज्यों यह उग्र होती जाती है,उसकी उग्रता की पराकाष्ठा बढ़ती जाती है।अहंकार और तानाशाही मेरे विशिष्ट गुण हैं।इसका अदना - सा राजनेता फुंकारता हुआ फण है। चमचों और गुर्गों की तो राजनीति में बारहों मास बहार है।राजनेता की आँखों में अहर्निश जहर को जुहार है।संभव है कि मंदिर में देवता के दर्शन हो जाएँ , पर राजनेता के दर्शन चुनाव के बाद वोटों के बुनाव पर ही हो पाएं।यदि उसके दरबार कोई कभी जाए,तो बिना दर्शन किए लौट के घर आए।

 राजनीति और राजनेता के केवल जुबान ही होती है।वह बस बोलना जानती है। जब उसके कान ही नहीं ,तो भला सुने कैसे ?इसलिए वह बहरी है। उसकी कोई तली ही नहीं कि कोई जान सके वह कितनी गहरी है !वह भले ही गाँव की झोपड़ी में या झुग्गी में पैदा होती हो,पर सदा शहरी है।दिखावे के लिए वह खाती चावल दाल की तहरी है,पर कञ्चन कार और कामिनी में आस्था गहरी है।रथ,रबड़ी,रमणी,रस,राजा,रानी, आदि सभी उसके परिवार के सदस्य हैं। 

राजनीति की एक खास बात यह भी है कि वह निर्मोही है। अनासक्त है। आम जन से विरक्त है। उसके लिए जन - जनता त्यक्त है।फिर भी आम जन उसका भक्त है।भले ही हर व्यक्ति इससे घृणा करता हो,पर मन में यही भाव होता है कि राजनीति ही सर्वश्रेष्ठ है।वही तो सबकी ज्येष्ठ है।सबसे वरिष्ठ है।पर सब कुछ सबके लिए नहीं होता। सृजनकर्ता सबको अलग-अलग गुण देता।उसी के अनुरूप वह देह के अंडे सेता।अब चाहे वह आम आदमी हो,अधिकारी ,व्यवसायी अथवा नेता।जिसकी जितनी लंबी सौर हो, पैर वह फैलाए तेता।जनता डाल -डाल है तो नेता पात - पात है।यहाँ न कुछ पाप है और न पुण्य है। राजनीति के शहद में जो लिपट गया, वह धन्य है। हर खास-ओ- आम के लिए अनुमन्य है।नज़र - नज़र में वही अग्रगण्य है।

 शुभमस्तु ! 

 20.08.2024●4.15प०मा०


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