348/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
होंनहार बिरवान फले हैं।
जन - जन वंदित सदा भले हैं।।
कर्मठता की पूजा होती,
विपदाओं के ढूह टले हैं।
मंजिल बस उनको मिलती है,
बिना रुके जो राह चले हैं।
स्वार्थ लिप्त अपने हित जीते,
जन - जनता को सदा खले हैं।
अहंकार में चूर रात - दिन,
सूरज उनके शीघ्र ढले हैं।
दीनबंधु निर्धन हितकारी,
सभी लगाते उन्हें गले हैं।
'शुभम् ' कर्म ही सदा अमर है,
कर्महीन ने हाथ मले हैं।
शुभमस्तु!
12.08.2024●2.30आ०मा०
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