सोमवार, 30 दिसंबर 2024

कौन न चाह करे सुख की [ सिंहावलोकन सवैया ]

 579/2024

  


छंद विधान:  1.सिंहावलोकन सवैया चार चरणों का एक  समतुकांत  वर्णिक छंद है।

2.इसमें 08 सगण (II2 ×8)

=24 वर्ण होते हैं।

3.इसकी प्रथम पंक्ति का अंतिम शब्द दूसरी पंक्ति का प्रथम शब्द होता है।


 ©शब्दकार

 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                         -1-

अब कौन न चाह करे  सुख की,

जग कोइ  भले  दुख  में मरतौ।

मरतौ   धरतौ   डग    पाँव  बड़े,

अपने  सुख हेत  सभी  करतौ।।

करतौ सब काज  बुरे - भल वो,

धन छीनि  चुराइ   भरे    धरतौ।

धरतौ  मन में    अपराध   नहीं,

भव-सागर   पार   नहीं तरतौ।।


                         -2-

सद शीतल  शीत - बयार   चले,

खग -ढोर न चैन मिले पल को।

पल को नहिं नींद  लगे   रतियाँ,

परसें  कब चाह लगे  जल को।।

जल को असनान   न भावत है,

इक  नाक दु नैन  भरें   छलको।

छलको घट  शीश   धरे  रमणी,

ठिठुराति चली दिन हू  ढलको।।


                      -3-

जिनके उर आग लगी  जलनी,

अब कौन उपाय  करें   सिगरे।

सिगरे  नर -नारि न होंय जले,

भलमानुस नाहिं सदा  बिगरे।।

बिगरे   टपकाय   रहे   रसना,

पहने तन पे   थिगरी - थिगरे।

थिगरे न दिखें अपने   तन के,

निज आग में जारि मरे उजरे।।


                     -4-

रवि  पूरब से उठि  झाँकि रहे,

चमकाइ रहे   मुखड़ा   डरते।

डरते  नहिं  नेंक   घटाइ सके,

अति शीत बढ़ौ जन हू मरते।।

मरते खग -  ढोर  अनेक धरा,

जल -जीव नहीं जल में तरते।

तरते जन छोड़ि गए जन जो,

यमराज लिए   पशवा  हरते।।


                  -5-

अपनी - अपनी  करनी  सबको,

फल देति कभी न कभी नर को।

नर को नहिं केवल लाभ   मिले,

कब हानि मिले कितनों डर को।।

डर को कछु काज करे तिय जो,

भरपूर   मिले   फल  हू भर को।

भर को न क्षमा मिलती तिल की,

नर -नारि कँपें  तहँ  पा  थरको।।


शुभमस्तु !


25.12.2024●12.30 प०मा०

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