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[धुंध,धुआँ, कुहासा,ओस,उजास]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्
सब में एक
जिनके मन मष्तिष्क में,सघन धुंध - संभार।
वे मानें कब देश को, मिला शुभद उपहार।।
धुंध हटे तब ज्ञान का,फैले जगत प्रकाश।
दृष्टि स्वच्छ हो दिव्यता,करे तमस का नाश।।
धुआँ-धुआँ हर ओर है, भटक रहे जन राह।
फिर भी इच्छित लक्ष्य की,मन में अटकी चाह।।
जहाँ धुआँ उठता मिले, वहीं मिलेगी आग।
नहीं समझना धूम को, श्वेत उमड़ता झाग।।
पौष-माघ के शीत में, सजल कुहासा आम।
राही भटकें राह में, अटक रहे सब काम।।
उदित किरण मार्तण्ड की,गया कुहासा दूर।
अग-जग में प्रसरित हुआ,दिव्य भानु का नूर।।
पल्लव दल गोधूम के,चमक रहे कण ओस।
लगता मुक्ता सोहते, दस-दस बीसों कोस।।
मानव-जीवन ओस-सा,कब ढुलके अनजान।
हवा चले किस ओर की,तनिक नहीं पहचान।।
जब तक हृदय उजास में,तब तक बसता ज्ञान।
मानवता मरती नहीं, सद्य शुभगतर ध्यान।।
उषा -रश्मि समुदित हुई,विकसित दिव्य उजास।
कलरव में द्विज लीन हैं, करते सुमन सुहास।।
एक में सब
धुंध धुआँ कण ओस से,बढ़े कुहासा खूब।
ज्यों-ज्यों दिव्य उजास हो,मखमल लगती दूब।।
शुभमस्तु!
24.12.2024●10.45 प०मा०
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