569/2024
©शब्दकार
डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चाँद निहारे
गगन-चाँद को
कौन बड़ा है छोट।
लगता बड़ा
धरा से इतना
ले सूरज की जोत,
प्राण चेतना
हीन सदा तू
रजनी प्रभा उदोत,
मैं दिन-रात
पूर्णिमा -ऊजर
निज साजन की ओट।
तू निकला
मैं खड़ी निहारूँ
कब घर आएँ पीव,
उनका पथ
कर दे रे उज्ज्वल
फैला किरण करीब,
पहने मैं
आभूषण साड़ी
पहने तू न लँगोट।
रुकता पल भर
नहीं रात-दिन
यात्रा पथ में लीन,
तपता कभी
शीत तू झेले
आभा कांति विहीन,
समझ न लेना
ढूँढ़ रही मैं
चाँद तुझी में खोट।
शुभमस्तु !
17.12.2024●1.15प०मा०
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