561/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चाहत यही
छाँव के घर धूप हो।
अनमना सूरज उठा
मुख ढाँप कर,
वायु भी बल
खा रही है काँप कर,
चाहत यही
जिंदगी नव रूप हो।
कुकड़ कूँ के
बोल मीठे कान में,
भर रहे हैं शहद
वृहद विहान में,
चाहत यही
सर्वत्र मीठी चूप हो।
ले कलेवा
चल पड़ी धनिया कहीं,
जोतता है
खेत पति होरी वहीं,
चाहत यही
नजदीक कोई कूप हो।
अब 'शुभम्'
वे गाँव तो मर ही गए,
शहर में
तब्दील हो कब के ढए,
चाहत यही
वह गाँव ही फिर भूप हो।
शुभमस्तु !
11.12.2024●6.00प०मा०
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