सोमवार, 23 दिसंबर 2024

लुढकाना भी उसकी चाहत है [ नवगीत ]

 566/2024

   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खाना भी 

लुढकाना भी उसकी चाहत है।


कोई जिए-

मरे,    उसे   क्या    लेना-देना!

सीधी -टेढ़ी

अँगुली से घी अपना  कर लेना,

सुलगे

सारा देश  मिले सुकून राहत है।


आग लगाकर

हाथ    सेंकता   लाश   भूनता,

होली  का

त्योहार मनाता मनुज-खून का,

मानव का वह

शत्रु, मौत   का   संग्राहक  है।


'शुभम्'  भाड़ - सा

देश,  बनाया  कौन  न  जाने,

दहक रही है

आग, क्रूर लिखता अफ़साने,

द्रोही वह

साक्षात ,ध्वंश का संचालक है।


शुभमस्तु !


14.12.2024●10.00 आ०मा०

                      ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...