सोमवार, 30 दिसंबर 2024

वे दिन दूरि गए अपने [दुर्मिल सवैया]

 580/2024

    

©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                      -1-

बरसें    नभ   से  जल बिंदु  घने,

बिन  पावस   लोग  न  मेह कहे।

चहुँ   ओर   कुहास  उसास भरे,

सब जीव कहें  नहिं  जात  सहे।।

अति शीतल   शीत  उछाल भरे,

सरि में सब  पात  सु - धार  बहे।

चल  माघ  नहान   करें   जमुना,

पिय हाथनु  हाथ    सधीर  गहे।।


                      -2-

ढिंग हाथनु  हाथ   दिखे  न  हमें,

अब  पूसहु -  माघ  सताइ   रहे।

सित  चादर  ओढ़   दिनेश  चले,

सरि  देवपगा   सम -  धार बहे।।

सब   खेत   भरे    हरिआइ  रहे,

मटरें  निज    हाथ   बढ़ाइ  गहे।

बहु  लोग  अलाव  जलाइ   उठे,

अपनी - अपनी  सब बात कहे।।


                      -3-

कब  साँझ भई   कब  भानु  उदै,

दिन जात न जान   परे  अब तो।

मुखड़ा  अपनों    दिखराइ  नहीं,

जब  जात छिपे चमके तब तो।।

सिग तेज गयौ कितकूँ  रवि कौ,

जपि वृद्ध  रहे अब  तो प्रभु को।

कंपि हाड़ बजें तन के   निशि में,

नहिं चैन परे दिन में    सब  को।।


                      -4-

अब  वे   दिन   दूरि   गए अपने,

जब गाँवनु  साँझ  अलाव जलें।

सब लोगहु   घेरिक   बैठि  तपें,

जल  शीतल  छूअत अंग  गलें।।

अपनी  जन ठोकि  बजाय कहें,

कुतियानु क शावक  खूब  पलें।

जब  भोरहिं  घाम   जगाइ हमें,

तब  छाँड़ि अलाव  पलंग चलें।।


                      -5-

तब  खेलत   खेल   अनेक  नए,

घमियात  रहें     बतियात    रहें।

इक गोलक  गोल    बनाइ  लई,

तहँ काँच बनी कछु   गोलि ढहें।।

कछु  खेलत  दण्डिक-गूल  बना,

कबहूँ जल में निज    नाव   बहें।

अपने  लघु  यान उड़ें   नभ   में,

घर  में अपने  पितु  - मार  सहें।।


शुभमस्तु !


25.12.2024●6.00पतनम मार्तण्डस्य।

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