551/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
गूगल गुरु से जब ये पूछा गया कि 'लुटेरा' शब्द का विलोम क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए वह निरुत्तर हो गया और यही कहा कि 'लुटेरा' शब्द का कोई विलोम शब्द नहीं होता,क्योंकि यह एक गणनीय संज्ञा है।यह तो कोई उचित और तर्कपूर्ण उत्तर नहीं हुआ।अर्थात जो किसान ,सबका अन्नदाता है : लुट तो सकता है, ठगा जा सकता है ,मूर्ख बनाया जा सकता है ;वह किसी को लूट पाने के गुण से वंचित होता है। उसे सब लूट सकते हैं ;किन्तु वह किसी को भी लूटने की क्षमता से शून्य होता है।ये विचित्र विडम्बना है!
जब कोई व्यक्ति बाज़ार में कुछ भी खरीदने जाता है तो उसके मूल्य का निर्धारण और वाचन विक्रेता दुकानदार ही करता है।सोना,चाँदी, लोहा, बर्तन, कपड़ा, बाइक, कार, ट्रक,बस,टिकट,सीमेंट,बालू, सरिया ,जमीन,मकान,प्लॉट,फ्लैट आदि आदि संसार की समस्त वस्तुओं का मूल्य बताने या माँगने वाला उसका विक्रेता ही होता है। कोई दुकानदार कभी किसी ग्राहक क्रेता से यह नहीं पूछता कि क्या भाव खरीदोगे? क्या दाम दोगे? बेचारे किसान को ही मंडी या बाजार में पूछना पड़ता है कि सेठ जी गेहूँ किस भाव खरीदोगे?आलू किस भाव क्रय करोगे?बैंगन,मिर्च,टमाटर ,अरबी, मिर्च,टिंडा,गोभी, गरमकल्ला,भिंडी,बंदगोभी,जौ,चना,मटर,सरसों, अरहर,उर्द,मूँग आदि किस भाव लोगे? किसान के साथ समाज देश और दुनिया ने ये कैसा मज़ाक बना रखा है कि जो उसका उत्पादक और मालिक है ;वह खरीददार से पूछ रहा है कि मूल्य क्या लगाओगे! कैसी मूर्खतापूर्ण बात है !
जब किसान मंडी में अपनी सब्जी लेकर पहुँचता है तो साफ़ और साबुत आढ़तिया छंटनी कर लेता है और थोड़ा सा भी खराब होने पर उसे निकाल कर सड़क पर ऐसे फेंकता है ,जैसे यह सब कुछ उसके पिताजी के खेत से बिना लागत,बिना खाद पानी, बिना निराई -गुड़ाई और बिना श्रम के ही आ विराजा हो। बड़े नखरे और रॉब दाब के साथ किसान से व्यवहार क्या दुर्व्यवहार ही किया जाता है और उधर किसान की सेहत पर कोई असर ही नहीं।उसमें भी नकद गिनने पर हजार बहाने! परसों आना,एक हफ्ते बाद ले जाना! या माल बिकने पर मिलेगा आदि आदि।
जिधर भी देखिए किसान के लुटेरे बैठे हैं।सारा बाजार और मंडियों में बैठे ठग उसे ठग रहे हैं और वह निरीह प्राणी बना हुआ सब कुछ सहन किए जा रहा है।यह किसान का वीभत्स अपमान है। सबसे बड़ी और बुरी बात ये भी है कि इस मुद्दे पर समाजसेवी, धर्म धुरंधर, नेता ,अधिकारी,शासन -प्रशासन सरकारें मौन बैठी हैं:कानों में तेल और मुँह पर फेविकॉल लगाए हुए ! जैसे किसी को कोई मतलब नहीं है। जबकि सारा देश सामाज और व्यक्ति उसी किसान के पसीने का अन्न,फल सब्जी आदि खाता है। वह तो ग़नीमत है कि गाय भैंस या बकरी आदि के दूध का मूल्य उसका मालिक ही लगाता है अन्यथा यदि चाय के चुक्कड़ों पर छोड़ दिया जाए तो मुफ़्त में ही दुह ले जाएँ!
किसान की उक्त लूट और देश की लुटेरी प्रवृत्ति का कारण ढूँढने चलें तो उसके मूल में किसान की गरीबी और धनहीनता ही है। यदि देश के किसान की हालत सुधरी हुई और सम्पन्नता की रही होती तो ये सभी लुटेरे लूट - स्थल : मंडियों में नहीं बुलाते ! जरूरतमंद को किसान के पास ही तेल लगाने जाना पड़ता । शासन -प्रशासन भला क्यों चाहने लगा कि किसान को उसकी फसल का कुछ ऐसा मूल्य मिले कि वह सम्पन्न हो सके !यदि किसान सम्पन्न हो गया तो सब भूखे मर जायेंगे।वह बराबर कर्जदार बना रहे,यही बैंकों, शासन और सरकारों के हित में है! लड़की -लड़कों की विवाह शादी में ऋण के बिना उसका काम नहीं चल सकता। उसके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ सकते। विदेश नहीं जा सकते।
गलत काम किये बिना कोई अमीर नहीं बनता।जो ईमानदार और स्वच्छ है उसी को सब लूट रहे हैं।इस दिशा में सत्य ने भी ऑंखें बन्द कर रखी हैं। जहां झूठ, बेईमानी, दुराचार,असत्य,अनाचार,अत्याचारऔर शोषण का बोलबाला है, वही फल -फूल रहा है। पैसा कठिन परिश्रम से अर्जित नहीं होता,तिकड़म और तड़क-भड़क से होता है।जो जितना बड़ा बेईमान ,वह उतना ही सम्मानवान। दुनिया और समाज में उसका उतना ही बड़ा वितान।वही सबसे बड़ा पहलवान,धनवान।
किसान होना एक अभिशाप से कम नहीं। किसान जैसा संतोषी और सर्वाधिक दुखी कोई नहीं।क्योंकि सब उसे लूट खाने के लिए बैठे हैं। लूट खा ही रहे हैं। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण क्या देना?अपने-अपने कुर्ते में झाँक लेना।एक अनार सौ बीमार। सब उसे चूसने के लिए अहर्निश तैयार।इसलिए हे किसानो! हे अन्नदाताओ! हो जाओ होशियार। इन लुटेरों से बच के रहो ! खबरदार ! क्योंकि मानवमात्र के तुम्हीं हो पालनहार।अपने अस्तित्व और अस्मिता को पहचानों। किसान संगठन बनाओ और एकता का शंख गुँजाओ।तभी तुम्हें इस लुटेरी व्यवस्था से निजात मिल सकेगी। राजनेताओं और राजनीति के जाल में मत फंस जाना। अन्यथा पड़ेगा तुम्हें बहुत- बहुत पछताना। अब समय आ गया है कि किसान अपने को जानें ,पहचानें।
शुभमस्तु !
04.12.2024●4.30प०मा०
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