556/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चन्द्र रुके सूरज झुके,रुकें जगत के नेम।
रुके न कौशल दास का, मोबाइल से प्रेम।।
सब सोएँ वे जागते , मोबाइल के साथ।
ब्लू टूथ ग्रीवा में पड़ा,नहीं मुबाइल हाथ।।
खाते पीते राह में, चलने पर अविराम।
मोबाइल चलता रहे,रुकें जगत के काम।।
बात जरूरी जब करें, मोबाइल है व्यस्त।
क्या झख मारें बात की,मन हो जाता त्रस्त।।
सबको ही घंटे मिले,गिने हुए चौबीस।
मोबाइल को चाहिए , घंटे कुल इक्कीस।।
दुर्लभ प्राणी देश में, मोबाइल के भक्त।
एक ओर मोबाल है,उधर जगत अनुरक्त।।
बातें हैं बस काम की,एक एक बस एक।
बाकी लफ़्फ़ाजी सभी,बकते फिरें अनेक।।
दो पल भर की बात को,तान रबर- सा तान।
कौशल दास महंत की, एक यही पहचान।।
सार - सार आता नहीं, मात्र बतंगड़ खेल।
कौशलजी से सीख लो,बिन बोगी की रेल।।
कौशल कम्बल एक है,लिपटा ग्रीवा बीच।
मोबाइल हैरान है, लगता काल नगीच।।
'शुभम्' धन्य वे लोग हैं, मोबाइल के दास।
कौशल से दीक्षा ग्रहण,करें बारहों मास।।
शुभमस्तु !
10.12.2024 ●3.30 प०मा०
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