गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

चले जाते हैं सब! [ अतुकांतिका ]

 550/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चले जाते हैं सब,

चलते चले जाते हैं,

न जाने कहाँ

किस ओर

 किस लोक में,

फिर लौट कर नहीं आते!


यादें रहती हैं कुछ दिन

कुछ घड़ियाँ मास वर्ष,

छोड़ी हुई भौतिक चीजें

बीती हुई घटनाएँ कुछ,

उसके बाद क्या 

कुछ भी तो नहीं

सभी कुछ हो ही जाता है फुस।


फिर किस बात की अकड़

किस बात का तरेरना मूँछें,

राह चलता इठकर   मूरख

किसी को बात नहीं पूछे,

आज क्या है कहाँ है 

कल क्या होगा,

न रहेगी ये ऐंठ

न रहेगा  चोगा।


गुज़र गईं सदियां

समय रुकता न कभी,

जीव किस ओर गया

लील गया अंबर

या निगल गई है ज़मीं।


मिट जाएँगे ये चिह्न

ये मकान महल दोमहले,

न जान ख़ुदा अपने को

मैं  कौन हूँ जानना पहले।


हवा का एक पिंड

चर्म माँस अस्थियों के भीतर,

कब निकल जाएगा पता क्या

सुकर्म से जी ले जी भर,

नियति के हाथों का 'शुभम्'

रह गया तू  खिलौना हे नर।


शुभमस्तु !


04.12.2024●1.00प०मा०

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