547/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
दुनिया ये बदल रही है, दृढ़ टूटते किले हैं।
उलटा जमाना आया, कैसे ये सिलसिले हैं।।
अपना हो उल्लू सीधा,फिर कौन किसको पूछे,
जिसको भी आजमाओ,उससे ही बहु गिले हैं।
किस बाग में बहारें, मिलती हैं ये बताएँ,
वह कौन सी है डाली, जिस पर सुमन खिले हैं।
बदली है चाल जन की,बहे खोट का समंदर ,
ढूँढ़ा था आदमी को, बद दनुज ही मिले हैं।
मिलते थे आम पीले, मुखड़े हैं आज ढीले,
दिखते हैं लोग गीले, भीतर से पिलपिले हैं।
बाहर का रूप कुछ है,अंदर से रूप रुछ है,
चिकने हैं चाम चमचम, अंदर पड़े छिले हैं।
निज विश्वास की चलाना,तरणी 'शुभम् ' नदी में,
मस्तूल यहाँ सभी के, डगमग डिगे हिले हैं।
शुभमस्तु !
02.12.2024●6.00आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें