बुधवार, 4 दिसंबर 2024

बस आदमी नहीं है [ गीत ]

 548/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बस देह आदमी की

पर आदमी नहीं है।


तन ढोर  सदृश  मैला

ढँकने को नहीं  कपड़ा,

बिखरे हैं बाल सिर के

रोटी का रोज  लफड़ा,

रोती हैं आँख  दोनों

तृण भर  नमी नहीं  है।


खेलें  वे  और  कूदें

कैसे न समझ  आए,

सूखी हैं आँत जिनकी

अति शीत  भी सताए,

माँ के हो वस्त्र तन पर

ये   लाजमी   नहीं  है।


मेरा महान भारत

कहते न थकते नेता,

नंगे  हैं  आम बालक

बतलाएँ  वे  ही जेता,

रहने को झोंपड़ी क्या 

तल में जमी नहीं है।


शुभमस्तु !


02.12.2024●10.30प०मा०

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