शनिवार, 16 दिसंबर 2023

कबीर मोति नीपजें शून्य शिखर गढ़ माँहि● [ आलेख ]

 538/2023 


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 ● ©लेखक

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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            सांसारिक कार्यसिद्धि के लिए साधन की परम आवश्यकता होती है।साधनों के द्वारा तो कोई भी कार्य को पूर्णता प्रदान कर सकता है ; किन्तु बिना साधन सामग्री के भी कार्यसिद्धि यदि हो जाए,तो क्या कहना ? संसार का प्रत्येक कार्य इसकी अपेक्षा करता है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मार्ग में चलने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि साधन हों ही। वहाँ बिना साधनों के भी कार्यसिद्धि की जा सकती है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अन्ततः वह कौन सी कार्यसिद्धि है ,जिसमें साधन अनिवार्य नहीं हैं।

         ज्ञानमार्गी काव्यधारा के निर्गुण पंथ के संत साधक महात्मा कबीर एक ऐसी ही महान विभूति हैं ,जो कहते हैं कि 

 सायर नाहीं सीप बिनु,स्वाति बूँद भी नाँहिं।

 कबीर मोती नीपजें, शून्य शिखर गढ़ माँहिं।। 

सामान्यतः मोती के निर्मित होने के लिए प्रकृति को तीन चीजों की आवश्यकता होती है।वे तीन चीजें हैं :समुद्र ,सीप और स्वाति बूँद।इन तीनों के होने के बावजूद यह अनिवार्य नहीं है कि मोती का निर्माण हो ही जाए।सम्पूर्ण साधन की पूर्ति के साथ ही यदि वह सुघड़ी,सुसमय,सुअवसर नहीं मिले तो भी सीप में मोती नहीं बन सकता

              इन तीनों वस्तुओं में प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है :स्वाती बूँद। जिसे कृत्रिम रूप से निर्मित नहीं किया जा सकता।जब स्वाति ही नहीं होगी तो सीप में गिरेगी कैसे? स्वाती बिंदु के निर्माण के लिए भी विशेष मुहूर्त भी परमावश्यक है ; वह नक्षत्र विशेष भी अनिवार्य है ; जब मेघ मंडल के मध्य उसका निर्माण हो!मान लीजिए यह सब परिस्थिति भी पूर्ण हो गई।अब प्रश्न है कि वह आवश्यक स्वाती बूँद जब निकले तो किस स्थान ,वस्तु ,नदी,सागर, सर्प मुख, चन्दन, नींम वृक्ष,कदली वृक्ष आदि में से कहाँ जाकर गिरे कि मोती बन जाए! वह नदी के जल में गिरकर पानी में विलीन हो सकती है।सागर जल में गिर कर अकारथ हो सकती है।सर्प - फन में गिरकर जहर भी बन सकती है। नीम में गिरकर चंदन और कदली वृक्ष में जाकर सुगंधित कर्पूर का रूप धारण कर सकती है।किंतु जब तक सीपी का मुख न खुले और उसी क्षण वह उसमें न गिरे तो मोती कैसे बन सकती है? सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए एक मोती बनने के लिए।इससे यह स्पष्ट हुआ कि साधन की अनिवार्यता के साथ -साथ सही परिस्थिति और सुसमय ही प्रधान है। तब कहीं जाकर एक सीपी में किसी मोती का निर्माण हो सकता है। 

               इस दोहे में महात्मा कबीर का संकेत और संदेश उस मुक्ति या मोक्ष रूपी मोती से है ,जिसे पाकर एक साधक संसार - सागर में रहते हुए मुक्ति प्राप्त कर सकता है। सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण तथ्य की बात यह है कि मुक्ति रूपी मोती भी प्राप्त हो जाए और कोई साधन की उपलब्धता नहीं हो। मोती भी ऐसा जो शून्य शिखर पर उत्पन्न होता हो। शून्य में ? वह भी मोती की उत्पत्ति ? एक विरोधाभास ,एक उलटबासी जैसी स्थिति! एक विचित्रता !एक विलक्षणता ! 

          ज्ञान की साधना ही वह मार्ग है ,जिसके लिए 

 'जप माला छापा तिलक ,सरै न एकौ काम।

मन  काँचे  नाचे   वृथा ,साँचे    राँचे राम।।"

 प्रभु की सच्ची आराधना के लिए किसी जप की आवश्यकता नहीं है। कंठी - माला भी नहीं चाहिए। देह के विभिन्न अंगों पर छापा लगाने अथवा ललाट पर तिलक त्रिपुंड लगाना भी अनावश्यक है। होना तो बस एक ही चाहिए कि मन पक्का हो। वहाँ कच्चापन न हो। वहाँ शक सुबहा न हो। 

           कबीर साहित्य में कबीर का चिंतन आध्यात्मिक होते हुए भी मानवतावादी है।मनुष्य मात्र के हित चिंतन का बोधक है। एक ओर कबीर जहाँ समाज सुधार के लिए मनुष्य के संकीर्ण भेदभाव, छुआछूत ,ऊँच- नीच का विरोध करते हुए हुए उसे डाँटते फटकारते हैं , वहीं वे उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए प्रबोधन करते हैं : 

पाथर पूजे हरि मिलें,तौ मैं लूँ पूजि पहार। 

याते तो चाकी भली,पिसा खाय संसार।।

 हिन्दू मुसलमान दोनों को सही मार्ग पर लाने के लिए कबीर ने कोई कमी नहीं छोड़ी है :

  अरे इन दोऊ राह न पाई। 

हिंदुन की हिन्दुआई देखी,तुर्कन की तुरकाई।

 हिन्दू अपनी करें बड़ाई ,गागर छुअन न देई।। 

वेश्या के पामन तर सोवें, यह देखो हिन्दुआई।

 मुसलमान के पीर औलिया,मुर्गा मुर्गी खाई।। 

 जब तक मन पक्का न हो तब तक माला फेरने का भी कोई औचित्य नहीं है । वे कहते हैं : 

माला फेरत जग मुआ,गया न मन का फेर। 

कर का मनका डारि के, मन का मनका फेरि।।

 मुसलमानों को फटकारते हुए कबीर ने कहा:

 कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय। \

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।। 

 जीव हिंसा के विरोध में कबीर वाणी कहती है : 

 दिन में रोजा रखत हैं,रात हनत हैं गाय। 

यह तौ खून वह बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।। 

 कबीर का मानवतावादी चिंतन उनके साहित्य में सर्वत्र बिखरा हुआ है। उन्होंने कहा -

 एके बूँद एकै मल मूतर। 

एक चाम एक गूदर।। 

एक जोति से सब जग उपजा, 

को बाँभन को सूदर।। 

               कबीर का चिंतन न केवल कबीर के युग में वरन आज भी उतना ही प्रासंगिक और अनुकरणीय है। आज का समय और प्राचीन कबीर युग के सामाजिक परिवेश में कोई विशेष अंतर नहीं है। इसलिये आज भी कबीर की आवश्यकता उतनी ही है ,जितनी कबीर काल में रही होगी।कबीर की मान्यता आज भी सर्व स्वीकार्य नहीं है ,न तब थी। क्योंकि कबीर का चिंतन पक्षपात पूर्ण नहीं है। उन्होंने गलत को गलत कहा और सही को सही। आम जन किसी बात को तभी सही कहता है ,जब बात उसके पक्ष की कही जाए। कबीर जैसा व्यक्ति क्यों किसी पक्ष की बात करे? उसे आम जन समाज से मत इकट्ठे नहीं करने। उसे वोट लेकर ऊँची कुर्सी नहीं हथियानी ,जो किसी के पक्ष का समर्थन करे! कबीर स्वतंत्र चिंतन के साधक हैं। वह साधना पथ में चल कर बिना सीपी, सागर ,स्वाती के मोक्ष रूपी पैदा करने की योग्यता के वाहक हैं। वह निराकार पर ब्रह्म के सच्चे साधक हैं। वे शून्य में ही मोती उपजाने की कूव्वत रखते हैं। सुप्तावस्था में मूलाधार में पड़ी हुई कुँडलिनी के लिए माला ,तिलक,छाप,आसन,मंदिर, मस्जिद आदि किसी साधन सामग्री की उन्हें आवश्यकता नहीं है।उनका मुक्ति रूपी मोती सुषुम्ना शिखर पर शून्य में ही अमृत प्रसवित करता है। कबीर चिंतन का यही सार है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 16.12.2023● 11.30आ०मा० 

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