शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

पता नहीं क्यों? [ व्यंग्य ]

 

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 ✍शब्दकार © 

 🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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               कहा जाता है कि हमारे यहाँ चोंसठ कलाएँ होती हैं।उनमें से मुझे कितनी आती हैं,यह भी रहस्य की बात है।हाँ, इतना अवश्य है कि मुझे एक कला तो बिल्कुल ही नहीं आती ,और वह है झूठे ही किसी को खुश करना ।अब यह भी पता नहीं कि यह उन 64 कलाओं में सम्मिलित है भी या नहीं है।भले ही यह उनमें सम्मिलित न हो , पर मैं तो इसे कला ही मानता हूँ।कला मानने का भी एक कारण है कि इस कला के बलबूते लोग बड़े -बड़े असाध्य कार्य सिद्ध कर लेते हैं और मैं वहाँ पर असफ़ल हो जाता हूँ। इतना अवश्य है कि मैं अपनी इस असफलता से भी असंतुष्ट नहीं हूँ।इस असफलता से भी मुझे प्रसन्नता ही होती है ।प्रसन्नता इसलिए होती है कि मुझे बाँस - बल्लियों के सहारे सत्य को पाने की बात तो दूर ,मैं उसे छूना भी पसंद नहीं करता। 

          लोग येन -केन-प्रकारेण अपना उल्लू सीधा कर लेने में अपनी विशेष चतुराई मानते हैं।पर मुझे इन सारी कलाओं को सीखने या उनमें कुशलता हासिल करने की कोई ललक नहीं है।भले ही कोई कुछ भी कहे , पर मुझे अपने रास्ते पर चलने में ही आनंद आता है। इसलिए मैं कभी भी 'शॉर्टकट' अपनाने में अपनी लेशमात्र भी रुचि नहीं रखता। भले ही पीछे रह लूँगा ,पर खरगोश की तरह दौड़ लगाना मेरी आत्मा को कभी भी स्वीकार नहीं है , न था और न भविष्य में होगा। कोई मुझे कछुआ कहे या कुछ और ! मुझे क्या ? मुझे तो इस कहावत में पूरा-पूरा विश्वास है कि 'हाथी अपनी राह चलते चले जाते हैं और कुत्ते भौंकते रह जाते हैं।' जिनका काम ही भौंकने का हो , उनसे अपेक्षा भी क्या की जा सकती है! उनकी सर्वशक्ति और अभिव्यक्ति का माध्यम ही एक मात्र भौंकना है।

             कुछ लोगों को ठकुरसुहाती में बहुत आनन्द आता है। मुझे न तो किसी के साथ ठकुर सुहाती करना पसंद है और न ही मैं किसी के साथ ऐसा कर पाता हूँ। लोग हैं कि मतलब निकालने के लिए गधे को भी अपना बाप बनाने में नहीं चूकते।बस , अपना उल्लू सीधा होना चाहिए। बाद में भले ही उसे जूतों के हार से सम्मानित क्यों न करना पड़े! 

                देखा यह भी जा रहा है कि साहित्यिक मंचों पर आभासी संसार में इतने मस्त हो गए हैं कि उन्होंने समीक्षा के कुछ फॉर्मूले गढ़ लिए हैं।कुछ उदाहरण नजरे-ख़िदमत पेश किए जाते हैं। जैसे : 

 १.'वाह! वाह!! क्या कहने ! आपने तो कलम ही तोड़ दी।'

 २.'ग़ज़ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब्ब् क्या बात है ! ' 

 ३.'बहुत खूब! आनन्द आ गया !!' 

 ४.' अरे !वाह ,आपने तो मेरे मन की बात ही छीन ली!! 

  ५.' आप भी क्या कमाल करते हैं! 

' ६.'बहुत बढ़िया !'  

७.'बहुत खूब!' 

 ८.'अति उत्तम सृजन!' 

 ९.'मौलिकता में कोई आपका सानी नहीं'! 

 १०.'बेजोड़!उम्दा !दमदार ! जानदार! शानदार!' आदि -आदि । यह एक रेडीमेड समीक्षा की आदर्श बानगी है , जिससे सामने वाला ग्लैड होकर फ्लैट हो जाये।

          इस प्रकार बिना लेख या कविता पढ़े हुए समीक्षा के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियाँ भी हैं। पहले लाभ की बात ही कर ली जाए। लाभ ये है कि जिसकी रचना की समीक्षा में झूठे कसीदे काढ़े गए हैं , उसका उत्साह वर्द्धन होता है औऱ वह अपने को एक बड़ा लेखक , कवि , महाकवि या शायर समझने लगता है। यदि वह थोड़ा -सा भी समझदार हुआ तो जान जाता है कि कोरा मक्खन लगाया जा रहा है। यदि वह समझदार नहीं हुआ (मैं किसी को मूर्ख क्यों कहूँ?) तो फूलकर कुप्पा हो जाता है और अपने अन्य इष्ट -मित्रों में प्रचार करने लग जाता है। हो सकता है कि इस झूठी प्रशंसा से ही वह महाकवि बन जाए! झूठी प्रशंसा से हानि ये है कि उसमें विश्वास कर लेने पर उसके विकास पर पूर्ण विराम का डंडा लग जाता है।

           आज के समय में एक बात और देखी जा रही है कि लोगों की छपास की उत्कंठा की तृप्ति के लिए अधकचरी, बिना व्याकरण , छंद के नियमों की मनमानी से धज्जियाँ उड़ाने वाली,अशुद्ध वर्तनीधारी रचनाओं को छापकर उनके बड़े कवि /कवयित्री होने के अहंकार को सुलगाया जा रहा है। अपने उस छपे हुए के स्क्रीनशॉट लेकर वे अपने सारे रिश्तेदारों , मित्रों , मंचों पर मंदिर के प्रसाद की तरह बाँटते नज़र आ रहे हैं।वे यह भले ही नहीं जानें कि इस बृहत साहित्य -सागर में उनका मूल्य एक घोंघे के बराबर भी नहीं है। 

            चापलूसी भरी समीक्षा ,अंधी समीक्षा या बिना पढ़े हुए 'फ़ार्मूलीय समीक्षा' - साहित्य को कहाँ ले जा रही है; सभी जानते हैं।कभी - कभी ऐसी रचनाओं से भी साबका पड़ता है जिसे समीक्षक तो क्या खुद लिखने वाला भी नहीं जानता कि उसने क्या लिखा है , किसके लिए लिखा है औऱ क्यों लिखा है। जो किसी के भी पल्ले न पड़े, वह सर्वश्रेष्ठ साहित्य! वह किसका हित साधक बनेगा, ईश्वर ही जाने। खुद जाने या खुदा जाने, वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होती दिखती है।

                   पता नहीं क्यों ,आज की दुनिया की दौड़ में सम्मिलत होना मेरे अधिकार -क्षेत्र से बाहर की बात है। चाटुकारिता की चटनी बनाना और चाटना मेरी रसना के स्वाद से बाहर हो गए हैं।इसलिए किसी को खिला भी नहीं पाता।दोष बताने पर लोग नाराज होते हैं, पर क्या किया जाए?मैं उन्हें भी मक्खन नहीं लगा पाता । जबकि मैं यह भी जानता हूँ कि 'मक्खन खाने से बेहतर मक्खन लगाना ही होता है।' देखते नहीं मक्खन लगाने वाले कहाँ से कहाँ पहुँच गए ! और मैं वहीं का वहीं, गणेश परिक्रमा कर रहा हूँ। समाज , राजनीति,धर्म सेवा,समाज सेवा, साहित्य -सेवा,देश-सेवा :किसी भी बाने में घुस जाइए, बस मक्खन चाहिए।फिर क्या मुफ़्त का चंदन, घिस मेरे नंदन! 

 

💐 शुभमस्तु ! 

 28.08.2020◆3.30अपराह्न।

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