शनिवार, 8 अगस्त 2020

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मुखौटे लगा के भी औक़ात नहीं छिपती।

चाँद  के आगोश में भी रात नहीं छिपती।।


फूल     कागज़   के   महक  भी   नक़ली,

आँख   की  ओट   में   रात  नहीं   छिपती।


बाँट    बंदर   का  जमाने  ने जाना  समझा,

साथ  बिल्लों  के  हुई   घात नहीं   छिपती।


जीत  सच्चे  की  हुई  है  होगी भी      सदा,

झूठे   उसूलों   की  कोई  मात नहीं  छिपती।


गंदगी कहते रहे लगाया भी गले से कसके,

सियासत वालों की कभी जात नहीं छिपती।


बूँद   छोड़  ही चुकी जो दामन  घन का,

जमीं  पर  होती  हुई बरसात नहीं छिपती।


बंद  कमरे  में  भले  हों सुहाग की   बातें,

'शुभम' नज़रों से मगर बारात नहीं छिपती।


💐 शुभमस्तु !


08.08.2020 ◆4.00अपराह्न।

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