शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

बाँटो और राज्य करो ! [ व्यंग्य ]

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 ✍लेखक© 🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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     जैसे -जैसे हम अति आधुनिक होते गए,बाँटने की की नीति के विशेषज्ञ बन गए ।यद्यपि इसका श्रीगणेश बहुत पहले ही सुशिक्षिता, अर्ध शिक्षिता,और अब तो अशिक्षिता नव वधुओं के पति गृह - प्रवेश के साथ ही हो गया था।आपको अच्छी तरह से स्मरण होगा कि इस देश में एक समय ऐसा भी था, जब एक ही छत के नीचे माता- पिता, चार पुत्र और उनकी बहुएँ , एक ही चूल्हे पर सिकी और एक ही दाल या सब्जी से सुखपूर्वक , बिना किसी शिकायत ,बिना कोई गृह- कलह के आनन्द पूर्वक गृहस्थी पालती -पोषती थीं। लेकिन अब वे बातें और संस्कृतियाँ इतिहास की बातें हो गई हैं। आज की नई पीढ़ी के दूल्हे-दुलहनें इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते, विश्वास करना तो कोसों दूर की बात है।आज तो सुहाग- रात को ही पति के पेट में दुल्हन के द्वारा अपने सास -ससुर या देवर जेठों से अलग अपना चूल्हा अलग ही गरमाने का बीज बो दिया जाता है।दूल्हा बेचारा मजबूर और असहाय -सा बना हुआ धीरे -धीरे ,डरते -काँपते यह बात अपने माँ-बाप के कान में डालता है , उनके सामने अपने बहू -बेटे का कष्ट देखा नहीं जाता ,और एक छत के नीचे दो -दो ,फिर तीन -तीन , चार -चार चूल्हे सुलगने लगते हैं। माँ-बाप अपनी औलाद को किसी तरह दुःखी नहीं देखना चाहते ,इसलिए उनकी हर इच्छा पूरी करना अपना धर्म समझते हैं। नतीजा - सारा परिवार टूट जाता है। 

     जब एक परिवार के माँ-बाप और उनकी प्यारी औलाद मिलकर नहीं रह सकती ,तो एक समाज , धर्म और जाति के लोग मिलकर एक कैसे रह सकते हैं ? छुआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण ,तो हमारी आदर्श महान भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। हम अपने अहंकार में टुकड़े -टुकड़े हो जाना , मर -खप जाना श्रेयष्कर मानने वाले सिद्धान्तवादी लोग हैं।चाहे हमारा विनाश हो जाये ,पर परस्पर मानव मात्र को एक मानना हमारी अस्मिता के विरुद्ध है।अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए हमारे पास अनेक तर्क हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथों के श्लोकबद्ध प्रमाण हैं। विदेशी आक्रांताओं से भले की कुचल दिए गए हों ,पर कहावत गलत सिद्ध नहीं होने देंगे कि:' रस्सी जल गई पर बल नहीं गए।' टुकड़े -टुकड़े होकर नष्ट हो जाना स्वीकार है ,पर एक धर्म और वर्ग के लोग यदि एक हो गए तो नाक नहीं नीची हो जाएगी? 

    देश ,समाज ,जाति ,धर्म को बाँटने का काम कोई निरक्षर और गँवार लोग नहीं कर रहे।यह काम बड़े -बड़े प्रबुद्ध कहे जाने वाले, नेता गण,औऱ ऊँची -ऊँची चौकियों पर चढ़कर भाषण करने वाले लोग ही कर रहे हैं। तो उन बेचारी बहुओं का ही क्या दोष ,जिन्होंने अपने अति सुख की तलाश में अपने सुख से ही तलाक ले लिया और गृहस्थी की लाश ढोनी पड़ रही है। 

    सम्मान तो पैसे और पद का ही है ,वरना कौन किसको पूछता है!यारी ,दोस्ती, नैतिकता सब पैसे की खूंटी से टाँगे हुए हैं।जहाँ पैसा है ,वहीं सम्मान भी है।एकता , संगठन, अखंडता ,प्रेम , मानवता , सद्धर्म, दया , सहानुभूति :ये सब बातें किताबों में अच्छी लगती हैं।ये इतिहास बन चुकी बातें हैं ।अपने अहंकार में टूट - टूटकर भले ही चट्टान से बालू बन जाएं ,पर बांटना औऱ क्रमशः टुकड़े -टुकड़े हो जाना स्वीकार है। कोरे हिंदुत्व के अहंकार में जीने से कोई लाभ नहीं होने वाला।कुर्सी और वोटों की खातिर देश को जातियों में बाँटना किसका काम है ,यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। देश में छोट-बड़ाई का भूत सवार होना किसका काम है , सब जानते हैं। अंधभक्तों की चमड़े की आँखों पर ही नहीं हया और विवेक की आँखों पर वेल्डिंग हो चुकी है। 

    भीड़ और भेड़ :आज परस्पर पर्याय हैं। आज का हर आम आदमी इनमें से एक नहीं ,दोनों है। वही भेड़ और वही भीड़ बढ़ा रहा है। नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनता ही कौन है? बहुमत तो भेड़ों का ही है , जो चाहें तो गधे को गद्दी पर बिठा दें।उन्हें पता है कि उन्हें बाँटा ,तोड़ा जा रहा है। पर उनका तो ब्रेनवाश पहले ही।कर दिया गया है। चिंतन की शक्ति पहले ही ख़त्म कर दी गई है। अब उनसे जो चाहो, सो काम लिया जा सकता है। लिया भी जा रहा है। मानव की मानसिकता का इतना अधिक दिवालियापन कभी नहीं देखा गया।इसलिए बटते रहो , कटते रहो ,लुटते रहो, पिटते रहो ,घटते रहो, क्योंकि अपनी बुद्धि तो भेड़ पथ के लिए दान ही कर दी है। 

     'बाँटो और राज्य करो' :का अमर पवित्र सिद्धान्त हमें धरोहर में हासिल हुआ है।इस सिद्धान्त का बिना किसी हीलो -हुज्जत , बाइज्जत पालन करना इस देश की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसलिए लकीर के फकीर बने हुए ,इसी पथ पर अग्रसर होना ही धर्म बन गया है।यह काम पहले एक मौसम विशेष में होता था,(जैसे मेढ़क केवल बरसात में ही टर - टराते थे)लेकिन अब बारहों मास ,पाँचों साल मौसम बना रहता है। मानसून का मौसम बनाना तो अब बायें हाथ का खेल है। अब जाति, धर्म ,मज़हब, वर्ण, आरक्षण , अवर्ण -सवर्ण, एस सी ,एसटी ,ओबोसी अनेक नामों से बारहों मास चलाया जाता है। डर है कि कहीं लोग भुला न दें, भूल न जाएँ।इसलिए रावण के दस सिरों को बारहों मास उगाकर उसकी फसल तैयार की जाती है। बाँटकर राज्य करने की पवित्र धरोहर को हमारे वर्तमान -'महापुरुष' जिंदा रखे हुए हैं। 

 💐 शुभमस्तु ! 
 21.08.2020 ◆6.50 अप.

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