मंगलवार, 28 जून 2022

अतीत की सतीतता और आज ! 🪷 [ लेख ]

 

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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         पीछे !पीछे !! पीछे !!! और पीछे झाँक कर जब देखता हूँ;तो अतीत दिखाई देता है।अपने सात दशक पूर्व के अतीत की झाँकी में जिस तीत के दर्शन होते हैं,आज उस तीत का दुर्भिक्ष काल चल रहा है।चाहे भौतिक रूप से देखें,सामाजिक, भावनात्मक , धार्मिक अथवा सांस्कृतिक रूप से सिंहावलोकन करें ,तो तीत तो बस अतीत में ही दिखाई देती है। आर्द्रता का वह 'सतीत- काल' अब किसी भी क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता। इन्हीं में से कतिपय बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। 

               सबसे पहले भौतिक जगत की ओर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि पावस ऋतु में जो वर्षा होती थी ,आज उसका दस प्रतिशत भी जल वर्षण नहीं होता।आषाढ़ का मास लगते ही आकाश मंडल काले भूरे मेघों से भर जाता था। मेघों की श्यामलता से दिन में भी अँधेरा छा जाता था।कुछ ही दिनों में बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की गर्जन और चमक के साथ वर्षा प्रारम्भ होती तो एक एक पखवाड़े रुकने का नाम नहीं लेती थी। थोड़ी देर के अंतराल के बाद जो वर्षा होती ,तो गोबर से लिपे पुते गाँव के आँगन, छतें ,गलियाँ, पनारे , नालियाँ, नाले ,दगरे ,खेत , वन, उपवन,नदियाँ, नहरें, बम्बे आदि सभी कुछ पानी पानी होते दिखाई देते थे। सात दशक पहले बरसते पानी में नहाने, आँगन में लोटने,पनारों के नीचे खेलने ,गलियों में उछलने कूदने का जो आनन्द लिया , उसे फिर नहीं देखा गया। वृद्धावस्था की ये आयु पाने के बाद स्वयं तो वह आनन्द नहीं ले सकते ,किंतु आज की नई पीढ़ी तो उस समय के आनन्द की कल्पना भी नहीं कर सकती।यद्यपि उस समय आज जैसी आर्थिक समृद्धि नहीं थी ,फिर भी आदमी संतुष्ट था ,प्रसन्न था। चाहे वह किसान हो ,मजदूर हो,नौकरी पेशा हो ,आम स्त्रियाँ हों अथवा विद्यार्थी ; सभी आंनद मग्न जीवन यापन कर रहे थे। 

            घर गाँव के बाहर खेतों में ,मेड़ों पर , तालाबों में सब जगह एक नया उल्लासपूर्ण वातावरण का साम्राज्य था।रास्ते, मेड़ों, खेतों में रेंगती हुई वीर बहूटियाँ, केंचुए, अनेक प्रकार के कीट - पतंगे,तालाबों में टर्राते हुए मेढक ,चम -चम चमकते हुए जुगुनू वृंद आदि का अपना ही समा था। यह सब कुछ तीत अर्थात पानी की बहुतायत का चमत्कार था। जो वर्तमान में दुर्लभ ही नहीं असम्भव ही हो चुका है।कच्ची छतों,घूरों, मेड़ों औऱ जहाँ - तहाँ उगने वाले फंगस,गगनधूर,मकियाँ,कठफूले, कुकुरमुत्ते,नम दीवारों पर हरे -हरे मखमली स्पर्श का आनन्द प्रदान करते शैवाल आदि अब कहाँ? सांध्य काल में मनोहर इंद्रधनुष की छटा का आनंद अब कठिन हो गए हैं।यह बात अभी मात्र बरसात की ही की जा रही है। ये वह सुनहरा काल है ,जिसके आधार पर वर्ष की शेष पाँच ऋतुओं का सौंदर्य टिका होता है।शेष पाँच ऋतुओं के सौंदर्य का तो फ़िर कहना ही क्या है? वर्णनातीत ही है। 

               भौतिक जगत की एक नन्हीं - सी झाँकी के बाद जब आज के सामाजिक क्षेत्र में झाँकते हैं तो वहाँ भी मानवीय संबंधों की तीत की कमी ही कमी दिखाई देती है। उस अतीत में सभी के दुःख- दर्द में सम्मिलित होना प्रत्येक सामाजिक के जीवन का अहं हिस्सा होता था। परिचित या अपरिचित कोई भी हो ,उससे राम राम, नमस्कार ,प्रणाम करना हमारा संस्कार था ।अब हम केवल अपने मतलब से नमस्ते करते हैं।जिनसे मतलब है ,बस वही हमारे नमस्ते के दायरे में आते हैं। शेष तो ऐसे हैं ,जैसे अपरिचित ,अनजान ।उस समय के लोग विशाल हृदय थे ,तो आज संकीर्ण हृदय। हृदयहीन भी कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।आज स्वार्थ ही संस्कार है।सामाजिकता का तिरस्कार है ,बहिष्कार है।कोई किसी के कटे पर मूत्र विसर्जन करने को तैयार नहीं है ,यदि कर भी देता है ,तो उसे उस मूत्र का मूल्य भी चाहिए;जिसे लिए बिना वह पिंड छोड़ने को तैयार नहीं है।मूल्य विहीन समाज में अब आदमी का मूल्य दो दमड़ी का भी नहीं है।मूल्य केवल स्वार्थ का ही शेष है।यह युग मूल्यप्रधान नहीं , स्वार्थ प्रधान है।ढोंग,ढपली औऱ प्रदर्शन आज के युग में सर्व सम्मान के आधार हैं।भावों की तीत मर चुकी है। हृदय मात्र रक्त संचारक पम्प है , उसमें भावों का कोई स्थान नहीं है।

               संस्कृति औऱ धर्म ;ये सभी मानव मूल्यों और मानवीय भावों से जुड़ी हुई चीजें हैं। जब भाव ही मर चुके हैं ,तो संस्कृति और धर्म कैसे सतीत रह सकते हैं।धर्म का दिखावा औऱ संस्कृति का ढोल उस समय नहीं पीटा जाता था।उस समय धर्म में शुष्कता औऱ दिखावा नहीं था, जो आज दिखाई दे रहा है।आज धर्म व्यावसायिकता का केंद्र बन गया था। पुण्य से पाप कमाने का धंधा जोरों पर है। धर्म के नाम पर आदमी अंधा हो चुका है ,जिसका लाभ बड़े- बड़े महंत, गद्दीधारी ,ए सी वासी धर्म के साम्रज्य पर बैठे तथाकथित 'महापुरुष ' चला रहे हैं। भावों का अकाल धर्म , संस्कृति सबका बेड़ा गर्क कर रहा है।

 सब कुछ अर्थ अवलंबित हो चुका है ,तो अतीत की सतीतता कैसे आ सकती है? धर्म,राजनीति,समाज ,कर्म, यहाँ तक कि मौसम, ऋतुएँ, धरती ,बादल, वर्षा की तीत अतीत बन कर रह गई है। जिसकी वापसी की संभावना दिखाई नहीं देती । पता नहीं कि मानव औऱ मानव से सम्बद्ध सभी कुछ उसे किस शुष्कता की ओर ले जा रहे हैं। जब मनुष्यता ही नहीं रहेगी तो विनाश की ओर जाना एक प्राकृतिक न्याय की ओर पदार्पण ही तो होगा।जिसकी परवाह न किसी धर्म धुरंधर को है, न संस्कृति विद को। राजनेता को तो अपनी कुर्सी की दो रोटियां सेंकने से मतलब है। उनके जाने चाहे मनुष्य जाए भाड़ में या देश रसातल में,अथवा सारी सृष्टि अशेष हो जाए। उसे नहीं पता कि सूखे आटे से तो रोटियाँ भी नहीं बनतीं। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २८ जून २०२२◆ ७.००पतनम मार्तण्डस्य।


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