शुक्रवार, 29 मई 2020

गुरु शिष्य परम्परा [ लेख ]




✍ लेखक © ☘️ 
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

                वर्तमान युग में प्राचीन पावन परम्पराओं का अस्तित्व शनैः शनैः कम से कमतर होता जा रहा है।जब सभी ऐसी अनु करणीय परंपराएं ढहती चली जा रही हैं , तो गुरु शिष्य परम्परा को मानने वाला कौन है? इस सबके लिए हमारा समाज और सामाजिक ढाँचा उत्तरदायी है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य श्री रामचरित मानस में मानवीय जीवन मूल्यों का विश्वकोश देखा जा सकता है। जिसमें पिता -पुत्र, माता -पुत्र , पति -पत्नी , स्वामी- सेवक , भाई -भाई , गुरु -शिष्य परम्परा और व्यवहृत आदर्शों का जीवंत निरूपण मिलता है।मर्यादा पुरुषोत्तम राम का युग त्रेतायुग था । द्वापर युग को पार करने के बाद रहे- सहे मूल्यों का ह्रास ही हुआ है। जब समाज के सारे मूल्य पतित हो रहे हैं , तो गुरु -शिष्य परम्परा ही कैसे अक्षुण रह सकती है।

              समाज में माता -पिता ही गुरु को महत्त्व नहीं देते ,तो संतान कैसे उसे सम्मान दे सकती है। समाज और माता पिता द्वारा दिये गए संस्कार ही संतान के चरित्र और मूल्यों का सृजन करते हैं। घर पर कोचिंग पढ़ाने वाले शिक्षक के संबंध में एक सेठ जी अपनी सेठानी से फोन पर पूछ रहे हैं: 'अरी मास्टर आया कि नहीं ट्यूशन पढ़ाने?' ये हैं आज के धन कुबेरों के संस्कार ! जिन्हें एक शिक्षक से उचित सम्मान देने की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। भूल जाइए वह अतीत की गुरु -शिष्य की परंपरा , जब शिष्य सुबह से लेकर कार्य पूरा न होने तक जंगल से गुरु माँ के ईंधन के लिए लकड़ियां काटकर लाते थे। क्या आज का शिष्य यह सब कर सकता है?
                      एक शिष्य जो कभी भी गुरु जी के लिए एक पालक का पत्ता भी नहीं लाया , एक दिन मटकी भर मट्ठा लेकर गुरु जी की देहरी पर जा पहुंचा। गुरु जी को आश्चर्य हुआ : 'अरे !भाई छबीले राम , इस मटकी में क्या लाया ?' शिष्य बोला :'गुरु जी आपके लिए छाछ लाया हूँ।' गुरु जी बोले : 'आज कैसे याद आ गई , पहले तो कभी नहीं लाया! ' छबीले राम कहने लगा -' गुरु जी। बिल्ली मुँह मार गई थी। सो मैंने सोचा , फेंकने से अच्छा है , गुरुजी के यहाँ ही दे दें , तो गुरु जी खुश हो जाएंगे।' गुरु जी लगभग दहाड़ते हुए।बोले - अरे ! दुष्ट छ्वुया तुझे मैं ही मिला था इस काम के लिए? चल उठा ,औऱ चलता बन।'

              तो ये हैं आज के शिष्यों के संस्कार! क्या कर सकते हैं आप इससे इनकार। जब तक माँ -पिता को सही संस्कार नहीं मिलेंगे और उस गुरु को अपनी दुकान पर सामान उठाने -रखने वाले नौकर समझा जाएगा , तब तक गुरु -शिष्य परम्परा की बात सोचना भी बेमानी होगा। निरर्थक होगा।शिष्यों से पहले उनके माँ- बाप के लिए संस्कार -शाला खोले जाने की आवश्यकता है।

 💐 शुभमस्तु !

 29.05.2020 .12.25 अपराह्न।

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