17/2025
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डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सृष्टि का समानुपात सर्वथा सराहनीय है। एक ही सृष्टि में अनेक सृजन निरंतर हो रहे हैं।प्रकारांतर से यह कहा जा सकता है कि एक ही असीम सृष्टि में अनेक सृष्टियाँ हो रही हैं।प्रत्येक सृष्टि की एक विशेष विशिष्टता है कि वहाँ समानुपात है। यह ठीक है कि किसी भी सृजन के लिए सृजनकर्ता को अनेक प्रकार की कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है,जिसके बिना कोई सृजन नहीं किया जा सकता।वह कच्ची सामग्री किस अनुपात में हो कि मनवांछित वस्तु का सृजन किया जा सके।
उदाहरण के लिए मानव को प्रत्यक्ष रखा जा सकता है।संसार में जितने मनुष्य हैं ,उनके उतने ही प्रकार हैं। सबके सबसे भिन्न स्वभाव हैं। भिन्न रचनाएँ हैं।कोई किसी से मेल नहीं खाता।कोई चोर,डकैत,राहजन यकायक काव्य सृजन करने नहीं लगता।उसे अपने कार्य में ही प्रवीणता हासिल करने के गुर सीखने की तीव्र लालसा लगी रहती है। एक दिन वह बहुत बड़ा चोर, डकैत अथवा राहजन बन जाता है।इस प्रकार उसमें काव्यत्व तत्त्व का अनुपात शून्य ही समझा जाएगा। इसी बात को उलटकर देखा जाए तो किसी कवि में चोरत्त्व का भाव तो विद्यमान हो सकता है,किन्तु किसी का सोना-चाँदी,धन- सम्पत्ति,वाहन आदि की चोरी का न होकर काव्य की चोरी का हो सकता है। जिस प्रकार देह निर्माण में अस्थि,माँस,मज़्ज़ा,रक्त,त्वचा आदि का अपना-अपना समानुपात है।जो उसे विशेष आकार प्रदान करता है। क्षिति,जल,पावक,गगन और समीर इन पंच महाभूतों से निर्मित सृष्टि में पेड़ पौधे,पशु,पक्षी, जलचर, कीट,पतंगे आदि सभी का सृजन हुआ है,किंतु भिन्न - भिन्न अनुपात में।यह अनुपातों की सुभिन्नता ही एक जीव को दूसरे से अलग करती है।
मानव के मन के सृजन की ही बात की जाये तो जितने जन उतने मन। सबके अपने-अपने ठनगन।अलग - अलग ढंग ,अपने रंग में मगन। एक ही छत के नीचे रहने वाले पति -पत्नी भी आजीवन एक मन नहीं हो पाते।अपने स्वार्थ के लिए कुछ पल के लिए एक तन हो लें ,तो हों। किंतु एक मन होना एक दुर्लभ कृत्य है।औरस संतान के गुण भी एक सम अनुपात में नहीं होते।जबकि उनके गुणसूत्र समान होते हों।सबके सृजनात्मक तत्वों का समानुपात मेल नहीं खाता।' मुंडे- मुंडे मतिर्भिन्ना' तभी तो कहा जाता है।
विचित्र तथ्य की बात यह है कि इस समानुपतिकता के परिणामस्वरूप सृष्टि की विभिन्नता भी जुड़ी हुई है।इसलिए प्रत्येक जीव एक चलता- फिरता उपन्यास है। जिस प्रकार किसी उपन्यास में नायक, नायिका, खलनायक, खलनायिका,दास, दासी,सहायक पात्र और विदूषक होते हैं,उसी प्रकार प्रत्येक जीव का जीवन चक्र एक विशेष समानुपात से सृजित होकर अपने चक्र को पूरा करता है।एक साथ रहकर भी सब स्वतंत्र जीवन यापन करते हैं।सहजीवन के बावजूद एक सूक्ष्म विभेद बना रहना अनिवार्य है। यह विभेद ही एक इकाई को दूसरी से विशेषत्व प्रदान करता है।संसार में एक भी ऐसा जीव अथवा नर नारी नहीं है ,जो अपने निहित विशेषत्व से शून्य हो।उनका यह विशेषत्व ही उन्हें परस्पर आकर्षित करता है और उन्हें परस्पर पूरक बनने के लिए प्रेरक बनता है।
समानुपातिकता जहाँ एक ओर परस्पर संयोजन करती है,वहीं वह उन्हें विभेद की ओर भी ले जाती है।प्रकृति की ओर से सृष्टि को समानुपातिकता एक चमत्कारिक वरदान है।विभिन्न गुणों, विशेषताओं,अवगुणों,भावों,विचारों आदि का निर्माण इसी से होता है।इसका अपना महत्त्व है।अपना अस्तित्व है।भले भी मानव रक्त का रंग लाल होता है,किंतु हम सबकी लालिमा भी अपने सूक्ष्म रूप में अलग ही है।रक्त का वर्गीकरण चार वर्गों में करने के बावजूद कहीं भी सदृशता नहीं है। सब अपने में 'यूनिक' हैं। इस स्तर पर इतिहास अपने को दुहराता नहीं है।हर जीव अपना विशेष जीवन लेकर अवतरित होता है और अपनी विशेषताएँ लिए हुए ही विदा हो जाता है। प्रकृति का पिता नित्य निरंतर नए साँचे बनाता है और नई और 'यूनिक' सृष्टियाँ करता है। युग पर युग बीतते चले जाते हैं ,चले जा रहे हैं,किंतु कहीं भी कोई पुनरावृत्ति नहीं है। हर विहान नव विहान है। हर साँझ नव्य संध्या है। हर फूल नया है,हर शल्य नया है।यही नहीं तो सृष्टि की नित्य नवलता ही क्या है !
आइए सृष्टिकर्ता की इसी समानुपातिकता को समझें,उस पर विचार करें।जितनी गहराई में उतरेंगे ,हमें नए मुक्ता मणि सुलभ होंगे।उन मुक्ता मणियों को पाएँ और आनंद लाभ करें। सृष्टिकर्ता के उस आनंद को पाना ही जीवन है। वही हमारा लक्ष्य भी होना चाहिए।
शुभमस्तु !
18.01.2025● 11.45आ०मा०
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