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✍️ लेखक ©
🪑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मेरा देश कृषि प्रधान नहीं, कुरसी प्रधान है।आप देख ही रहे हैं कि कृषि करने वालों का सम्मान अब कितना शेष रह गया है? वैसे पहले भी किसान का कितना सम्मान था ! इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सुनार ,लुहार, मनिहार अपने सोने ,लोहे औऱ चूड़ियों की कीमत स्वयं ही लगाता है और ग्राहक को उसका वही मूल्य देना भी पड़ता है ,किन्तु किसान के गेहूँ ,चावल ,सब्जी ,फल आदि का मूल्य मंडी में बैठा हुआ लाला या दलाल ही लगाता है। किसान अपनी ओर से इतना भी नहीं बोल सकता कि इस भाव नहीं देंगे। बल्कि मंडी में आने के बाद उसे आढ़तिये से यही कहना होता है कि लाला जी गेहूँ ,चना ,मटर ,मक्का जो भी है ,उसे किस भाव लोगे ?यदि टमाटर की डलिया में कोई टमाटर गला,फटा या पिचका हुआ निकलता है तो खरीदार लाला उसे सड़क पर ऐसे फेंक देता है ,जैसे उसके पूज्य पिताजी के खेत से ही टमाटर तोड़कर लाए गए हों।इसी प्रकार बैंगन,आलू,सेम, मिर्च ,भिंडी , शलजम,मूली, गोभी आदि के साथ भी मंडी में यही बदसलूकी दलालों औऱ सेठों के द्वारा नित्य प्रति ही की जाती है ,जो आजकल से नहीं, सदियों से यही होता चला आ रहा है। इन क्रेताओं द्वारा किसान को अपने पूज्य माता -पिता का नौकर समझा जाता रहा है। किसान अपने खेत औऱ फसल का मालिक समझता भर है ,पर वास्तव में उसके असली मालिक तो ये दलाल ,आढ़तिये औऱ मोटे पेट वाले लाला लोग ही हैं। किसान का झूठा अहंकार औऱ खोखली मालकियत यहीं मंडी में आकर पता चलती है।
पुनः अपने पूर्व प्रसंग पर आते हैं और आपको अपने देश की 'कुरसी - प्रेम' की कथा सुनाते हैं।नेता से अधिकारी तक,ग्राम प्रधान से लेकर इंस्पेक्टर आबकारी तक सबकी एक ही कहानी है। येन -केन - प्रकारेण सबको चाहिए कुरसी ही।इसका नाम 'कु' -'रसी'(अर्थात बुरे रस वाली ) है तब तो आदमी का ये हाल है ,उसकी चाल ही बेचाल है ,हाल बदहाल है, ताल बे ताल है,जब चाहो तब हड़ताल है , दंगा है बबाल है। यदि यह 'सु'-'रसी' हुई होती ,तो न जाने क्या होता?
एक गाँव का प्रधान बनने के लिए लोग विरोधियों के लोहू तक को कोकाकोला बनाकर पी जा रहे हैं।गाँव ,जो प्रदेशों और देश की सबसे छोटी इकाई है ,उसकी कुरसी के लिए मानवता को खूँटी पर कमीज की तरह बेतमीज बन कर टाँग दिया जाता है।इससे ऊपर नगरपालिका अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, विधायक, सांसद ,मंत्री ,मुख्यमंत्री प्रधान मंत्री के लिए कितना हवन पूजन, उच्चाटन, तीर्थ - भ्रमण, स्नान ,दान , महादान किया जाता होगा, ,अकल्पनीय है।इसमें बहुत कुछ अख़बार में छपता है , कुछ गोपनीय बाहर नहीं दिखता है।सियासत के सभी सूत्र साम,दाम,दंड औऱ भेद अपनाए ही जाते हैं।बिना उनके कुरसी माई के चरण पकड़ कर उस पर आसन नहीं जमा पाते हैं।
समय -समय पर कुरसी के रूप बदलते रहे हैं। कभी चौपायों की तरह यह चार पैरों की हुआ करती थी, लेकिन जब से आदमी बे पेंदे का लोटा हो गया ,तब से इसके चार पैर गायब ही हो गए और वह रिवॉल्विंग(अर्थात घूमने वाली) हो गई।जब आदमी का चरित्र ही घूमने लगा और हर रस का रसास्वादन करने लगा तो भला कुरसी का रूप ,चरित्र और चाल-चलन क्यों नहीं बदलता। वह भी बदल गया औऱ बहुत अच्छी तरह बदल गया। अब नाई और अधिकारी की कुरसी में कोई अंतर ही नहीं रह गया। यह बात अलग है कि नाई वाली से अधिकारी ,विधायक,मंत्री की कुर्सी में बहुत अधिक मूल्यात्मक अंतर हो। कहाँ बेचारा नाई औऱ कहाँ अधिकारी। कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली? सारी बात अनमेली ! कहाँ रबड़ी कहाँ गुड़ की भेली!
तो मैं कह रहा था कि आदमी के चंचल चरित्र ने कुरसी के चरण भी खत्म कर दिए।वह जिधर भी चाहे अपना रुख मोड़ लेता है। किसी को अपनाता है, किसी को छोड़ देता है। वैसे इन घूमने वाली कुरसियों पर बैठने वालों का कोई अपना नहीं होता है।इनका तो भगवान दामोदर में अर्थात दाम के उदर में रहता है । स्थिरता विहीनता,चंचलता, विमोह आदि इन कुरसियों औऱ कुरसी आसीनों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। अब आप कहेंगे कि ये घुमंतू कुरसी नसीन जन कृषि को या किसान को महत्व दें तो क्यों? इनका गेहूँ ,सेव , काजू, बादाम, सब्जी ,दाल ,आटा सब कुरसी की करामात का चमत्कार है ।ये नहीं मानते कि दूध भैंस देती है । ये मानते हैं कि दूध इनकी कुरसी देती है। वहीं से सब्जी ,दाल ,आटा ,कोठी, कार, कंचन ,कामिनी सब कुरसी से ऐसे निकलता है ,जैसे चक्की से आटा। जब किसान और गरीब इंसान पिसता है ,तब इनका दूध निकलता है।फ़ल औऱ मिठाईयों की डलियाँ बरसती हैं।नोटों की बोरियां सरसती हैं। जिधर भी कुरसी घूम जाय ,उधर से ही अलादीन का चिराग कंचन बरसाने लगता है।
कुरसी के कमाल और धमाल की कथा अनन्त है।इन कुरसी वालों की नज़र में खेती किसानी तो पिछड़े ,गरीब और सर्वहारा लोगों के पेट भरने का साधन मात्र है। उ न्हें इन किसानों से क्या लेना - देना? उनकी तो चतुर्दिश घूमने वाली कुरसी ही सब कुछ उंडेलकर दे देती है। किसान को मूर्ख बनाकर ठगने के लिए ही उसे इनके द्वारा अन्नदाता कह दिया जाता है। तभी तो कपड़े की दुकान पर बैठा हुआ सेठ किसी किसान के दुकान में आने पर कहता है :'आओ बौरे जी' (बौरे= पागल, मूर्ख)। बौहरे जी नहीं कहता। ये शब्द सुनकर किसान बेचारा फूलकर कुप्पा हो जाता है। और अपनी जेब कटवाने की सहर्ष अनुमति दे देता है।
कुरसी औऱ कृषि की कोई तुलना नहीं है। तभी तो किसान का बेटा कृषि को वरीयता न देकर जैसे भी मिले कुरसी की तलाश में बूढ़ा हो जाता है,पर कुरसी मैया है कि वह सब पर कृपा नहीं करती। वह ऊँची सोच से नहीं ,उत्कोच से मिल जाती है।ज्ञान से नहीं ,चाटुकारिता के विज्ञान से मिल जाती है। चरित्र से नहीं, प्रमाणपत्र से मिल जाती है ,भले ही वे नकली हों।नकली सोने की चमक असली सोने से होती भी ज्यादा है , पर कसौटी पर सब गुड़ गोबर हो हो जाता है। हो ही जाना है। हो ही जाना चाहिए। कुरसी धारियों के लिए कुरसी से अधिक रस संसार की किसी भी वस्तु भी नहीं है। जब तक सृष्टि पर मानव की कृपा वृष्टि है ,तब तक कुरसी की महिमा अपरम्पार है। कुरसी से डूबतों की नैया पार है। सात सात पीढ़ियों का उद्धार है।उनके लिए न सावन ,भादों क्वार है, बस कंचन कामिनी की भरमार है।जो कुछ भी सुख के नाम पर है, हमार है। बहती हुई गंगा जी की धार है, जिसने भी कुरसी मैया के गह लिए घूमते हुए चरण उसका बेड़ा पार है।फिर तो सब नकद ही नकद है , कुछ भी नहीं उधार है। वास्तव में कुरसी की माया का क्या कोई पार है?
🪴शुभमस्तु !
२०.०३.२०२१◆ ८.१०पतनम मार्तण्डस्य।
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