गुरुवार, 25 मार्च 2021

आठों पहर उपाधि 🐚 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ लेखक©

 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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         महात्मा कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा है- 'कबिरा संगति साधु की,हरे और की व्याधि। संगति बुरी असाधु की,आठों पहर उपाधि।। महात्मा जी ने तो उपाधियों से बचने के लिए साधुओं की संगति करने का सत परामर्श दिया है।लेकिन आज के हर युवा की लगन केवल और केवल उपाधियों को प्राप्त करने की लगी है।उसे चौबीसों घंटे, आठों पहर ,सातों दिन उपाधियों की ही लगन लगी हुई है।उपाधियों को बुलावा ,उनका सादर आमंत्रण उनकी अशांति का कारण बन गया है।

        सभी लोग जानते हैं कि मानव के लिए दो प्रकार की बीमारियां उसके साथ लगी हुई हैं।'व्याधि' अर्थात दैहिक रोग और 'आधि' अर्थात मानसिक रोग। यदि 'आधि ' यदि सम्पूर्ण रूप से मानसिक रोग है ,तो उप+आधि= 'उपाधि' ,उससे कुछ निचले सोपान की बीमारी हुई । जिसे पाने के लिए आज का युवा 'साम' और 'दाम' से प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।उसे आठों पहर उपाधि ही चाहिए, इसके लिए भले ही उसके 'घुटना- स्पर्शनीय' पिताजी को उत्कोच समर्पण करके (दाम के माध्यम से) 'उपाधि' हासिल करवानी पड़े,भले ही जाँच में वह फर्जी पाई जाए ,पर कुछ साल तो मजा मार ही लिया जाए ।अथवा पसीना बहा कर(साम) रात के अँधेरे में एल ई डी की रौशनी में हस्तगत कर ली जाए।

           हमारी साधन व्यवस्था में 'दंड' औऱ 'भेद' के प्राविधान भी बताए गए हैं। किसी की उपाधि चुराकर अपना नाम बदलकर भी ये काम किया जा सकता है ,भले ही असली धारक को कितना ही बड़ा 'दंड' मिल जाए।अंतिम अस्त्र 'भेद' ही शेष है,जिसे पढ़ाई के सिवाय कितने ही दरवाजे भेद कर 'उपाधि ' हासिल करना गुणी जनों के बाएँ हाथ का खेल है। अब 'उपाधि 'तो 'उपाधि' है। उसे अपने यथानाम तथा गुण के अनुसार अपनी विशेषता का खेल तो दिखाना ही है। प्राप्ति का साधन कोई भी क्यों न हो ,आठों पहर जिसको पाने की लगन, 'प्रयत्न' और- 'जतन' किए गए ,उसका 'सुफल'-भी कर्ता और भोक्ता को समय पर पाना ही है। वह पाकर ही रहता है। कोई 'साम' औऱ ज्ञान विधि से उपाधि पाकर भले 'सेवा-सुलक्षणी' के भोग से वंचित भले रह जाए, परंतु दाम, दंड औऱ भेद विधियों से 'उपाधि' का वरण करते हैं, वे कभी भी असफल हो जाएं ,ऐसा सुना ,देखा नहीं गया। उन्हें हर रास्ते पर चलने के 'गुर' और 'गुरू' भी मिल जाते हैं ,तो उनका मार्ग भी स्वतः प्रशस्त होता चला जाता है।

        कबीर के युग से आज के युग में कितना बड़ा परिवर्तन आया है। तब लोग उपाधि से बचने के लिए साधु की संगति तलाश करते थे ,और अब उपाधि पाने के लिए 'साढ़ू' की संगति तलाशते हैं।  उप- आधि अथवा आधि की खुशी- खुशी खोज की जा रही है।असाधु से किसी को कोई भय ,खतरा भी नहीं है।वे अधिक निडर ,निर्भर , निशिचर और निश्चल हो गए हैं। उन्हें अपनी वांछित 'उपाधि' पाने से कोई डिगा भी नहीं सकता।इसलिए पूतों की मम्मियाँ, डैडी सब 'एक सूतलीय कार्यक्रम' में तन ,मन औऱ धन से समर्पण करते हैं। भविष्य के सुखों की दूर आकाश में उड़ती हुई पतंग क्या कुछ नहीं करा लेती ? जब वह नील गगन के नीचे लहराती बल खाती है, तब स्वप्न में भी दामों की तिजोरियां भरी हुई दिखाई देती हैं।यह उपाधियाँ कितनी उपाधि कारक, उपाधि दायक और उपाधि ग्रस्त सिद्ध होंगी ,इसका पूर्वानुमान भला किसको होता है औऱ 'आठों पहर उपाधि ' की मृगमरीचिका की यात्रा में चलते रहते हैं।

 🪴 शुभमस्तु ! 


 २५.०३.२०२१◆८.३०पतनम मार्तण्डस्य।

 

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