गुरुवार, 18 मार्च 2021

ब्रज की लठामार होली 🎊 [ दादरा शैली में गीत]

 

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 ✍️ शब्दकार ©

🎊  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मेरे   ब्रज   जैसी   होली  कहीं  भी  नहीं।

जो   यहीं   है,  यहीं   है,   यहीं   है   यहीं।।


नंदगाँव     से       चले    हुरियारे    सभी।

वन    संकेत    में   गए   हैं  सारे     तभी।।

राधारानी     के   दरस  को पधारे     यहीं।

मेरे    ब्रज   जैसी  होली  कहीं  भी  नहीं।।


गली  रँगीली   में  आए  हैं  ग्वाला    बली।

लठामार    देने   को   खड़ी बाला   चली।।

मार   खाने  में  कहते  वे  नहीं  ही    नहीं।

मेरे    ब्रज  जैसी   होली  कहीं   भी  नहीं।।


वे     रसिया   रसीले   गाए  चले  जा   रहे।

वार    लाठी   के   सिर  पे बचाए जा   रहे।।

गोपियाँ        रँग      धारी  बरसाती     रहीं।

मेरे   ब्रज  जैसी    होली   कहीं   भी  नहीं।।


प्रिया   कुंड में    अब   अजब  है    समा।

लठामार     होली     में    रँग  है   जमा।।

ढाल   सिर   पर  लगाए  लठ गिराती  रहीं।

मेरे    ब्रज    जैसी  होली  कहीं  भी  नहीं।।


धन्य   हैं   वे 'शुभम'   जो  ब्रज  में   हुए ।

खाते    गोपी   के   हाथों से  मीठे    पुए।।

चिपकी साड़ियाँ  चोली कसमसाती  रहीं।

मेरे   ब्रज   जैसी   होली  कहीं   भी  नहीं।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०३.२०२१◆१२.३०पतनम मार्तण्डस्य।


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