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✍️ शब्दकार©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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(1)
बातें करते रात भर, हुई सुहानी भोर।
देखा कक्ष -मुँडेर पर,नाच रहे थे मोर।।
नाच रहे थे मोर, रात बातों में बीती।
कोरी नारी - सीप, रही रीती की रीती।।
'शुभम'करे जब घात,न आतीं वे फिर रातें।
बुझे नहीं जब प्यास,वृथा हैं सारी बातें।।
(2)
बाँधी उर में आस थी,आए फ़ागुन मास।
प्रीतम आएँ लौट घर, करें बहुत उपहास।।
करें बहुत उपहास, सहेली भौजी मेरी।
चैन नहीं दिन रैन, सताए याद घनेरी।।
'शुभम' कर रही जोर,देह में उठती आँधी।
कोकिल करती शोर,पिपासा रहे न बाँधी।।
(3)
अपनी पहली रात है,वृथा न खोना काल।
देखो दर्पण में प्रिये,सेव हुए तव गाल।।
सेव हुए तव गाल, करों से इनको छू लें।
यह सुहाग की रात, नहीं आजीवन भूलें।।
'शुभम'सहज हो मेल,नहीं अब माला जपनी।
स्वाति बिंदु की चाह,बढ़ रही दु:सह अपनी।।
(4)
मिलना पहली रात का,हुआ आजकल दूर।
वासंती पल्लव झरे, कहाँ गया वह नूर।।
कहाँ गया वह नूर, प्रतीक्षा में मदमाते।
खुली प्रथम ही सीप,नहीं अब मुक्ता पाते।।
कर लें'शुभं'विचार,कली का कैसा खिलना।
रस को चूसें भृंग, शेष कैसा ये मिलना।।
(5)
कलियाँ विकसीं डाल पर,रंग नहीं मकरंद।
घूँघट में शरमा रही, अंतर सद्य सुगंध।।
अंतर सद्य सुगंध,रिझाने हित प्रिय प्यारा।
खिलता लाल गुलाब,वाटिका में यह न्यारा।।
'शुभं'लगा मधुमास,कुंज की महकी गलियाँ।
बौराए हैं आम,महकती केसर कलियाँ।।
🪴 शुभमस्तु !
०२.०३.२०२१◆५.००पतनम मार्तण्डस्य।
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