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✍️ शब्दकार ©
🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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यूँ तो बहुत हैं रंग पर रंगत नहीं है।
खुशबू के साथ फूल की संगत नहीं है।।
दावतों पर दावतें होती हैं यहाँ पर,
जंगल है आदमी का पर पंगत नहीं है।
कौन फैलाता नहीं है हाथ को अपने,
झूठ है यह बात वह मंगत नहीं है।
फूल- से मुरझा रहे ये चेहरे भी क्यों,
युवक - युवतियों पर सद रंगत नहीं है।
कहता है 'शुभम' ग़ज़ल हर रँग में,
मगर उसकी कहन पारंगत नहीं है।
🪴 शुभमस्तु !
२१.०३.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।
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