सोमवार, 1 मार्च 2021

बहती गंगा में गोता🎆 [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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नित्य  लूटते  देश को,कहलाते वे      भक्त।

पानी,बिजली मुफ़्त के,पर धन में अनुरक्त।।


नेता  की  सब  ही सुनें,नेता हैं बिन  कान ।

झोली  फैलाए  खड़े,दे दो मत का    दान।।


झूठे  आश्वासन दिए, बढ़-चढ़ ऊँचे     मंच।

जनता  मुँह  बाए  खड़ी, बना उन्हें सरपंच।।


जनता को ठगने चला,बदल- बदल कर वेश।

माथे पर टीका सजा,बढ़ा शीश  के  केश।।


बिना वेश सम्मान भी,मिलता नहीं अपार।

ढोंगी  नेता बन गया,जनता का करतार।।


सदा  सत्य  से दूर है, छलिया, मूढ़, लबार।

आज वही  चढ़ बोलता, ऊँचे मंच   सवार।।


कथनी  मीठी खाँड़-सी,करनी विष की बेल।

देश किया   नीलाम ये,बिकती देखी    रेल।।


मँहगाई   की   मार  से,जनता है      लाचार।

भक्त - नयन पट्टी बँधी, देख तेल  की धार।।


शोषण करना देश का, जन्मसिद्ध अधिकार।

रंग   बनावट  के   लगा ,करता    बंटाढार।।


उनसे क्या आशा करें,जिनका चोरी    काम।

देशद्रोह  कर  लूटते,सुविधा सहज  ललाम।।


हाँ जी!हाँ जी!!में लगे, अधिकारी मजबूर।

बहती गंगा   में लगा ,गोता  लें सब   शूर।।


 🪴शुभमस्तु !


०१.०३.२०२१◆७.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

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