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✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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पनघट सब सूखे पड़े, शेष न रस्सी डोल।
नहीं सुनाई पड़ रहे,पनिहारिन के बोल।।
गागर का जल अब नहीं,शीतल करता तृप्त।
फ्रिज़ घर-घर में आ गया,प्यास हो गई जब्त।
अब ठंडे के नाम पर,लस्सी मिले न छाछ।
कोका कोला भा गया,खिली युवा की बाछ।
ढप ढोलक सब मौन हैं,मंजु मँजीरा शांत।
यू-ट्यूब को देखकर, होली है उद्भ्रांत।।
होली वह होली नहीं, बीते वर्ष पचास।
गाँव शहर में खो गया, पीढ़ी नई उदास।।
मोबाइल है हाथ में, दिखता नहीं धमाल।
राग-रंग सूखा सभी, शेष न फ़ाग गुलाल।।
फूलों के अब रँग नहीं,सोया कहीं पलाश।
रंग रसायन से बने, टूट गई है आश।।
पहली - सी मस्ती नहीं,चंदन लगती धूल।
गले गले से मिल रहे, बीती बातें भूल।।
देवर भाभी खेलते, लगा गाल पर रंग।
बुरा न कोई मानता, न थी भावना तंग।।
बाली जौ गोधूम की, भून होलिका आग।
खाते थे नव अन्न हम,फिर होता था फ़ाग।।
चढ़-चढ़ छत पर नारियाँ, बरसाती थीं रंग।
कपड़े होते तर-ब-तर,होता रंग न भंग।।
🪴 शुभमस्तु !
१५.०३.२०२१◆४.३० पत नम मार्तण्डस्य।
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