मंगलवार, 16 मार्च 2021

गाँव शहर में खो गया [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पनघट  सब सूखे पड़े, शेष न रस्सी  डोल।

नहीं सुनाई पड़ रहे,पनिहारिन के   बोल।।


गागर का जल अब नहीं,शीतल करता तृप्त।

फ्रिज़ घर-घर में आ गया,प्यास हो गई जब्त।


अब ठंडे के नाम पर,लस्सी मिले  न छाछ।

कोका कोला भा गया,खिली युवा की  बाछ।


ढप  ढोलक सब  मौन हैं,मंजु मँजीरा शांत।

यू-ट्यूब  को देखकर,  होली है  उद्भ्रांत।।


होली  वह  होली  नहीं,  बीते वर्ष   पचास।

गाँव  शहर  में  खो गया, पीढ़ी नई   उदास।।


मोबाइल  है हाथ में, दिखता नहीं  धमाल।

राग-रंग सूखा सभी,  शेष न फ़ाग गुलाल।।


फूलों के  अब  रँग नहीं,सोया कहीं पलाश।

रंग  रसायन  से  बने, टूट  गई है     आश।।


पहली - सी  मस्ती नहीं,चंदन लगती धूल।

गले  गले  से  मिल रहे, बीती बातें  भूल।।


देवर  भाभी  खेलते, लगा गाल  पर  रंग।

बुरा न  कोई  मानता,  न   थी भावना तंग।।


बाली  जौ  गोधूम  की, भून होलिका आग।

खाते थे नव अन्न हम,फिर होता था फ़ाग।।


चढ़-चढ़  छत पर नारियाँ, बरसाती थीं रंग।

कपड़े होते तर-ब-तर,होता रंग   न   भंग।।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०३.२०२१◆४.३० पत नम मार्तण्डस्य।


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