गुरुवार, 18 मार्च 2021

मत तरसाओ 🐧 [ नवगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

कोयल बोली 

अमुआ डाली

मत तरसाओ।


फूल -फूल पर

 भँवरे आए

चूस रहे रस,

फूल मौन हैं

हुए समर्पित

अपना क्या वश?


सूखी काया

सोया माली

मत तरसाओ 


होली आई

शरमाई कलियाँ

आस तुम्हारी,

रात -रात भर 

बाट निहारूँ

एकटक हारी।


मन की मन में 

किससे कह दूँ,

मत तरसाओ।


कोने में

सूखी पिचकारी

व्यर्थ पड़ी है,

मेरी नजरें 

दिन औऱ रातें

उधर गड़ी हैं।


ताने मारें

सखी -सहेली

मत तरसाओ।


कौवा बोला है

मुँडेर पर

क्या खुशखबरी!

बाहर देखूँ

भीतर जाऊँ

हाय मैं मरी।


चोली तड़की

उठी तरंगें

मत तरसाओ।


तन महका

दहका -दहका है

क्या बतलाऊँ,

प्यास जगी है

नीर नहीं है

क्या समझाऊँ!


ओ रँगरसिया!

मन के बसिया

मत तरसाओ।


🪴शुभमस्तु!


१८.०३.२०२१◆७.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...