शनिवार, 6 मार्च 2021

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गाँव में वैसी सुहानी, अब कहीं होली नहीं।

बोल से मन को रिझाले,नेह की बोली नहीं।


पिचकारियाँ सूखी पड़ीं,रँग रसायन से बना,

ढोल- ढप से गूँजतीं, वे नाचती टोली   नहीं।


खेलते थे पंक से तब,जन बुरा क्यों मानता,

अब गुलालों से भरी वह फागुनी टोली नहीं।


खोया मैदा से बना,गुझिया नहीं वैसी मिले,

रंग से जो खिलखिलाए अब कहीं चोली नहीं


नाचते थे छानकर वे,लोग अब मिलते नहीं,

जिंदगी के ग़म भुला दे,भाँग की गोली नहीं।


रात भर  हम खेलते थे, चाँदनी रातें   कहाँ,

साथ आजीवन निभाते,आज हमजोली नहीं।


'शुभं' मदनोत्सव मनानाऔपचारिक हो गया,

सालियों को मत रिझानाअब रहीं भोली नहीं

   🪴शुभमस्तु !


०६.०१.२०२१◆५.३०पतनम मार्तण्डस्य।

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