सोमवार, 29 मार्च 2021

रँगराते-रसमाते छंद [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रँग-वर्षा कवि -शब्द की,करती हृदय विभोर।

और रंग कृत्रिम सभी, केवल करते   शोर।।


शब्द - शब्द   में रंग है,जो बरसे    रसराज।

देवर  भौजी से  कहे, छोड़ो भौजी   लाज।।


मैं   रतिदेवी  काम तुम, आओ  मेरे   संग।

हे साजन! दिखता नहीं,कैसा अजब अनंग।।


नहीं, नहीं करती रही,बँधी तिया    भुजबंध।

प्रियतम सँग अभिसार में,युगल नैन हैं अंध।


देखे युगल उभार जब,धड़कन बढ़ी  अपार।

विनत हुईं पलकें युगल,उत्तम अरुण अनार।


अंग-अंग में रँग लगा,परस किए जब अंग।

जाने  कैसी  उठ  रही,तन में प्रबल    तरंग।।


कहाँ  लगा दूँ रंग  मैं,अँग-अँग जगा  अनंग।

पोर-पोर  में   रंग  की,अद्भुत तरुण  तरंग।।


साजन के सँग खेलतीं ,सखियाँ  होली  रंग।

अब तक मैं एकांत को,तरसी मिला न संग।।


अंग-अंग फ़ागुन हुआ, महका सुमन गुलाब।

सहज सुहानी-सी लगे,प्रियतम कर की दाब।


महुआ  के  मादक  सुमन,चूने लगे  अनेक।

बौराए  हैं आम भी,कर फ़ागुन   की  टेक।।


होली   में   चोली  हुई, सजनी मेरी    तंग।

जब से आए सजन घर,लगा करों से रंग।।


 🪴 शुभमस्तु !


२९.०३.२०२१◆५.३० पतनम मार्तण्डस्य।


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