शनिवार, 6 मार्च 2021

चकाचौंध 💥 [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चकाचौंध से

चुँधियाये नयनों में

क्या कुछ भी

दिख पाता है,

पड़ती चमक 

नयन पर ज्यों ही

सब धुँधला हो जाता है।


अपरिसीम प्रकाश की चमक

झेलने की शक्ति कहाँ!

तिलमिला जाते हैं

दो नयन सारा जहाँ,

बॉलीवुड की चौंध

रही है मानवता को रौंद

कुम्हला रही है  नई पौध,

बजाते रहे हम 

ढपलियाँ अपने आदर्शों की,

पर कर देती है  नई पीढ़ी

अनदेखी अनसुनी,

इस नई पीढ़ी ने

अपनी अलग ही 

पगडंडियाँ चुनी,

ओढ़ने -बिछाने की

अलग ही चादरें बुनी।


चकाचौंध पश्चिम की

किसने नहीं देखी - सुनी,

देखकर घोड़े को

मेढकी भी नाल 

ठुकवाने चली,

जब बोल उठी टें

तब याद आई 

पोखरे की तली,

इससे तो पहले ही

मैं रह रही थी भली।


छोड़कर अपना काज,

सजाते हैं जो 

होड़ में गैर का साज,

नहीं कर पाते 

अपना कोई काज,

चला जाता है

उनका हर नाज,

पर नहीं लगता जब तक

एक अच्छा झटका,

नहीं होता कान पर

लेशमात्र खटका,

फिर पछताए होता क्या

जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत,

अब तो पड़ी रह गई 

मात्र सूखी रेत,

काले से बनना

 चाहा था श्वेत,

पर न रहे घर के

न घाट के,

हो गए वंचित 

अपने सहज ठाठ- बाट से,

चकाचौंध का सदा से

यही नतीजा है,

नई पीढ़ी के नर-नारी का

यही फजीता है,

चौबे जी बनने गए थे

कि बन जाएँ छब्बे जी,

मगर लौटकर घर आए

तो रह गए मात्र दुब्बे जी।


स्व सीमा,सामर्थ्य ,शक्ति

निज सभ्यता ,संस्कति में

अपार अनुरक्ति, 

रखती है विमुख चकाचौंध से,

मानव की निजता में

अवरोध से,

किसी भी तरह की

अशुभ ऊहापोह से,

नहीं करनी है 'शुभम'

आसक्ति किसी भी

अंध लोभ से।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०३.२०२१◆१०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


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