शनिवार, 13 मार्च 2021

नाच ,नाच नाच 💃🏻 [ व्यंग्य ]


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 ✍️लेखक © 


💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम


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          आज का युग 'नाच -संस्कृति' का है। 'जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ,न तेरी - सी खुशबू न तेरी - सी बू है।' कोई नाच रहा है। कोई नचा रहा है।नाच का धमाल मचा रहा है।कोई अपने गाल बजा रहा है।कोई नाच का साज सजा रहा है। नेता जनता को, अधिकारी अधीनस्थ कर्मचारी को, सास बहू को,बहू सास को, पहलवान देह -माँस को, कर्मचारी बॉस को, निरीक्षक दुकानदार को, बेईमान सदाचार को, मिलावटी संसार को, प्रदूषण सरि - धार को,व्यभिचारी नारि को नचा रहे हैं। मानव अपनी मौलिकता को मारता जा रहा है।अपने भीतर छिपे हुए हुनर को ,कला को ,ज्ञान को, विज्ञान को निरंतर भुलाता जा रहा है। अकर्मण्यता इस सीमा तक बढ़ गई है कि उसे हर चीज 'रेडीमेड' चाहिए।बुद्धि ,तन ,मन और अपने जतन सबको मारता जा रहा है। रेडीमेड वसन, रेडीमेड    भोजन(फास्टफूड),रेडीमेड भाषण , रेडीमेड धन(गबन,चौर्य, डाका, गिरहकटी,उत्कोच,दलाली आदि से झपटा हुआ), रेडीमेड सृजन , रेडीमेड गायन सब कुछ रेडीमेड। इस बात का तनिक नहीं है उसे खेद।अब तो जहाज़ में ही हो गया है बड़ा छेद।तो बेड़े को डूबना ही डूबना है। उसे अपनी अकर्मण्यता के चरण चूमना ही चूमना है। 


             स्कूल से कालेज तक बस नाच का धमाल है।वे समझ रहे हैं कि यह हमारा कमाल है। वे नहीं जानते कि हमारे भविष्य के लिए यह काल है। पहले छात्र - छात्राएं अपनी मौलिकता का प्रदर्शन करते हुए स्वयं गाते - बजाते थे। अपनी प्रतिभा की महफिल सजाते थे। अब सब गुड़ गोबर हो गया है। आदमी दिमाग से ओवर (समाप्त) हो गया है।वही बॉलीवुडी संस्कृति का धमाल है। चिप्स,मोबाइल,पेन ड्राइव आदि से साउंड बॉक्स या वूफर पर गाना बज रहा है औऱ नई युवा पीढ़ी का कमर संचालन साज सज रहा है। हिल रहे हैं उनके मात्र होठ। कैसे कहें कि उनका है कुछ खोट। हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा ही आ रहा है।ये इंसान कहाँ से कहाँ जा रहा है। अपनी तो बस कमर ही चलानी -हिलानी है।दर्शकों की नज़र में बन जाना मस्तानी है।


           गुरुजनों का भी भार बहुत हलका का है। आप ही देख लीजिए कि ये आदमी जो आज है वही कल का है।उधार की आवाज ,उधार का साज, उधार का ही गाज -बाज। तुम्हारा क्या? हमारा क्या? सबका मशीनीकरण ।अपना तो बस देह - मांस को हिलाना है। प्रशंसा में तालियाँ बजवाना है। न अपना गाना है ,न अपना तराना है।नाचना है या नचवाना है। नकल का बिगुल बजवाना है। क्या करेंगे अब स्कूल - कालेज के टीचर। नई पीढ़ी होती चली जा रही जो फटीचर ! क्या वर्तमान और क्या फ़्यूचर! देख देख कर ये नए फीचर। कैसा - कैसा ये मानव क्रीचर।


           यह मौलिकता की हिंसा का युग है।यह प्रकृति का नियम है ,मानव जिस अंग का उपयोग नहीं करता ,वह एक दीर्घ अवधि के बाद स्वत : नष्ट हो जाता है। उसने पशुओं की तरह अपनी पूँछ का उपयोग नहीं किया ,तो वह अपने बाहरी स्वरूप में नष्ट हो गई। आज भी उसका प्रमाण कमर के मध्य में एक अस्थि के रूप में महसूस किया जा सकता है, जो एक वास्तविकता है, प्रमाण है। औऱ वह पशु से मानव हो गया।करोड़ों वर्ष के बाद मानव - देह की संरचना में यह परिवर्तन हुआ। मानव-मष्तिष्क के जिस भाग को अप्रयुक्त रखा जाएगा, तो करोड़ों वर्षों बाद उसका भी वही हाल होना है ,जो उसकी दुम का हुआ।क्योंकि उसने बनाना शुरू कर दिया है अपने लिए एक अंधा कुंआ। जल रही है आग मगर दिख नहीं रहा उसे धुँआ।जब बिना किए ही काम चल जाए ,तो कोई दिमाग क्यों चलाए! बस कमर ही हिलाए ,होठ ही स्पंदित कराए।


          मशीनों की दासता । बन्द करती जा रही है उसका हर रास्ता।उसे नहीं रखना है पसंद आदमी से वास्ता। आदमी है ही अब सबसे सस्ता। रोटी को छोड़कर खाना है ब्रेड, बर्गर, मैकरोनी ,पास्ता ।नहीं अब पुराने ढर्रे के पट्टी - बस्ता।अब तो लेपटॉप ,कम्यूटर से है  उसका वास्ता।सब निकम्मेपन की सौगात।चाहे मरे दिमाग़ या आदमी का गात। भले ही मिले उसे हार का उपहार या मात।साँझ से प्रात या दिन - रात। बस नाच, नाच और नाच। बस शेष है यही साँच। किसी को समझाओ तो कहता है मत करो ज़्यादा तीन -पाँच। तेरे ऊपर आ रही है कौन -सी आँच ? मुझे कहना पड़ेगा :  ठीक है तू नाच ,नाच और जोरदारी से नाच। 


 🪴 शुभमस्तु ! 


 १३.०३.२०२१◆ ८.५० पतनम मार्त्तण्डस्य।

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