गुरुवार, 23 सितंबर 2021

वैदेही 🧡🧡 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार  ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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विदेह हो तुम

अदृष्ट निराकार,

चर्म-चक्षुओं के उस पार,

पूरित तुम में 

तत्त्व भरित  सार,

महिमा अपार।


मेरे अंतर्मन में

नित नए -नए  रूपों में

बदल-बदल कर

अदृश्य वसन,

बिना किसी यत्न,

अवतरित होती हो,

भावों के राग में

डुबोती हो।


लगता नहीं

मुझे तुम कभी सोती हो?

सोती है मेरी देह,

निस्संदेह,

अनवरत अनथक 

जागती होती हो।

सोच भी नहीं पाता मैं

कि तुम मेरी हो,

हाँ ,हाँ तुम मेरी हो।


तुम्हीं ने दी हैं

मुझे कितनी कविताएँ,

कितने लेख 

कितनी नव रचनाएँ,

कितने ग्रंथ, खंड काव्य

महाकाव्य ,

जितना भी था मुझसे संभाव्य,

बन गया है आज 

वही मेरा सौभाग्य,

किन्तु सदा मौलिक ही,

कभी कोई बासीपन नहीं,

पुनरावृति नहीं,

सदवृत्ति ही बही,

जो भी बात तुमने  कही।


मैं भी क्या हूँ!

एक खोखला ढोल ही तो!

तुम्हारा ही नृत्य साज बाज,

ध्वनि संयोजन का राज,

रस, अलंकार, छंद,

गीतों के बोल 

नव बंध,

मात्रा स्वर व्यंजन,

जैसे उछलते हुए खंजन,

लय गति प्रवाह

 तुम्हारी ही शुभ वाह !वाह!!

सब तुम्हारा ही तो है।


कहते हैं सब

रचना मेरी है,

परन्तु यथार्थ है यही

कि तुम्हारे बिना

सब अँधेरी ही अँधेरी है,

मेरी ये छोटी सी बुद्धि

तुम्हारी चिर चेरी है।


तुम हो यों तो 

सबके ही पास,

पर वे सब हैं बड़े उदास,

उन्हें नहीं है तव आभास।।

 पूज्या माँ वीणावादिनी ने

सबको नहीं दी वह कला,

कि उनका एक भी वाक्य

रचना में  नहीं ढला,

सभी हो जाते यदि 

मानव कवि,

नहीं बना सकता

हर व्यक्ति स्वयं को हवि।


वैज्ञानिकों ने खोज डालीं

रहस्य की खोज,

भूगोल खगोल में 

हर रोज़,

नहीं होती कहीं

वैज्ञानिकों की फौज,

कवियों का भी

 वही हाल है,

उनमें से अकिंचन 'शुभम' भी

एक नन्हीं दाल है।


शत - शत नमन करता है

तुम्हारा ये 'शुभम',

प्रार्थना है यही 

न हो तुम्हारी कृपा

कभी भी कम,

जन्म जन्मांतर तक

तुम्हारी साधना आराधना

करता  रहूँ,

जीव मात्र की 

हित साधना में रत रहूँ,

ऐ ! मेरी उरवासिनी,

वैदेही कल्पने!


🪴 शुभमस्तु !


२३ सितम्बर २०२१ ◆९.५५आरोहणं मार्तण्डस्य।

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