शनिवार, 18 सितंबर 2021

प्यास, प्यासा और प्याऊ💦 [ दोहा -गीतिका ]


◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆◆

पानी  पीकर चल दिया,बुझा कंठ की प्यास।

छोड़ी प्याऊ दूर पथ,सत्य, न समझें  हास।।


तृप्ति  हुई अंजलि बँधी,खुले हाथ के बंध,

प्याऊ वाले को मिला,अलग तृप्ति आभास।


शीश हिला संकेत था, अब रोको जलधार,

प्यास बुझी है कंठ की,उर में हुआ उजास।


प्यासे पथिकों को मिले,जब मनचाहा नीर,

जीवन की बँधती  रहे,जीने के हित आस।


यदि प्यासा  पौधा मिले, मुरझाए  हों  पात,

जलसिंचन मत भूलना,जल जीवन की श्वास


जाति न होती प्यास की,याद रखें यह बात,

करनी अपनी भूलकर,करना नहीं  उदास।


'शुभं'स्वाति की आस में,चातक अति बेचैन,

प्यास  बुझाएँ  मेघ  दल,पूरा है   विश्वास।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०९.२०२१◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...