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✍️ शब्दकार ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जन्मी मध्य तनाव के, मानव की शुभ देह।
प्राण अंतरण हो गया,अनजाने जन-गेह।।
शिशु- वय में स्वच्छन्द हो,पाया सर्वानंद।
रूप हुआ भगवान का,लिखे नेह के छंद।।
ज्यों-ज्यों वय बढ़ती गई,बढ़ते रहे तनाव।
शिक्षालय में जब गया,लगा बदलने भाव।।
वय किशोर में नारि- नर,खेले- कूदे ख़ूब।
मीत मिले मुस्कान-से,जमी प्यार की दूब।।
शिक्षा भी पूरी हुई, यौवन करता खेल।
दो तन-मन जब से मिले,बढ़ी वंश की बेल।
धन अर्जित करने लगा,फैला विस्तृत जाल।
बढ़ते नित्य तनाव भी,होता माला-माल।।
दायित्वों के भार से,दबता विविध प्रकार।
कभी जीत दिखती उसे,कभी दीखती हार।।
जिसे न निज दायित्व का,तनिक नहीं है बोध
पशुवत नर विचरण करे, करके देखा शोध।।
मात-पिता गुरु का कभी,किया नहीं सम्मान।
शूकरवत वह मनुज है,कभी न बढ़ती शान।।
मात-पिता गुरु,ईश के,माने जो प्रतिरूप।।
रौरव में गिरता नहीं,'शुभम' उसे भवकूप।।
मात-पिता गुरुमान का,जिसे नहीं है ध्यान।
मिट जाता है अवनि से,उसका नाम निशान।
🪴 शुभमस्तु !
१२.०९.२०२१◆१०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।
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