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✍️ शब्दकार ©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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(1)
प्रेम में सब कुछ बसा है,
प्रेम से जीवित रसा है,
प्रेम से है सृजन सबका,
प्रेम से कण - कण लसा है।
(2)
सरित सागर में समाती,
रात- दिन अनवरत जाती,
प्रेम का आह्वान ऐसा,
मंजु कलरव कर सुहाती।
(3)
इस धरा की प्यास ऐसी,
मेघ समझा चाह वैसी,
भर लिया है अंक में जब,
प्रेम की ध्वनि मूक जैसी।
(4)
गरजते बादल पधारे,
अवनि अपना तन उघारे,
कर रही कब से प्रतीक्षा,
प्रेम के रँग को निखारे।
(5)
हम बसाएँ जगत ऐसा,
प्रेम हो बस प्रेम जैसा,
'शुभम' हो हर प्रणय अपना,
कह न पाएँ प्रेम कैसा?
🪴 शुभमस्तु !
०१.०९.२०२१◆१२.१५ पतनम मार्तण्डस्य।
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